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बुधवार, 13 दिसंबर 2017

भाग - 42 मेवाड़ का इतिहास - सन 1433 - 1469 ईस्वी. महाराणा कुम्भा | Maharana Kumbha|


भाग 42 - मेवाड़ का इतिहास
महाराणा महाराणा कुम्भा  


 महाराणा कुम्भा  का जन्म:- 


मेवाड़ के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा वीर हुआ हो जिसमे सभी तरह के गुण हो | महाराणा महाराणा कुम्भा एक ऐसे ही महान व्यक्ति थे जिनमे सभी तरह के गुण थे वो न केवल एक परम वीर योधा थे अपितु एक कुशल नेतृत्व करने वाले और कला प्रेमी भी थे | महाराणा महाराणा कुम्भा राजपूताने का ऐसा प्रतापी शासक हुआ है, जिसके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है। महाराणा महाराणा कुम्भा का जन्म 1403 ई. में हुआ था। महाराणा कुम्भा चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे। महाराणा महाराणा कुम्भा की माता  परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। उनकी कम उम्र में ही उनके पिता महाराणा मोकल की हत्या हो गयी थे | तथा उन्हें 1433 इसवी में राजसिहासन पे विराजमान कर दिया | कम उम्र के कारण कई राजा उनके राज्य पर कुदृष्टी  रख रहे थे |

महाराणा मोकल की हत्या महाराणा खेता की उपपत्नी का पुत्र चाचा व मेरा ने की थी | उनके समर्थक महपा पंवार ने विद्रोह खड़ा कर रखा था |  ऐसे समय में मेवाड़ का दरबार भी दो गुटों में बंट चूका था | इसी समय महाराणा महाराणा कुम्भा के छोटे भाई खेमा की इच्छा भी महाराणा बनने की हुई | खेमा ने तख्ता पलटने के लिए मांडू (उस समय मालवा ) पहुच कर वहा के सुल्तान से सहायता प्राप्त करने का षडयंत्र बनाया | इसी समय दिल्ली सल्तनत भी कमजोर हो गयी थी वहा फ़िरोज़ तुगलत के बाद सैय्यद आसीन तख्त पर बैठा | वह कमजोर शासक था | तैमुर के आक्रमण के कारण दिल्ली सल्तनत छिन्न भिन्न हो गयी और कई छोटे दूरवर्ती प्रदेश जिनमें जौनपुर, मालवा, गुजरात, ग्वालियर व नागौर आदि स्वतंत्र होकर, शक्ति एवं साम्राज्य प्रसार में जुट गए थे। इस प्रकार के वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए महाराणा कुम्भा ने अपना ध्यान सर्वप्रथम आतंरिक समस्याओं के समाधान की ओर केन्द्रित किया। महाराणा कुम्भकर्ण ने  पिता के हत्यारे को सजा देने के लिए  मारवाड़ के राव रणमल राठौड़  की तरफ से पूर्ण मदद ली। परिणामस्वरुप चाचा व मेरा की मृत्यु हो गई। और चाचा के लड़के एक्का तथा महपा पँवार मेवाड़ को छोड़कर मालवा के सुल्तान के यहाँ शरण लेने चले गए । इस प्रकार महाराणा कुम्भा ने अपने प्रतिद्वंदियों से मुक्त होकर सीमाओं की सुरक्षा की ओर ध्यान केन्द्रित किया। इस प्रकार महाराणा कुम्भा ने एक विजय अभियान चलाया ताकि जो प्रदेश राजनितिक महत्वपूर्ण थे उन पर फिर से कब्ज़ा जमाया जा सके |


महाराणा कुम्भकर्ण के विजय अभियान : 


गागरोन विजय - महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थिति गागरोन-दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया।

बूँदी विजय - 


गागरोन दुर्ग पर विजय के पश्चात महाराणा कुम्भा ने बूँदी पर आक्रमण करने की सोची | क्योकि जब महाराणा कुम्भा छोटा था तो बूंदी ने कई गावो पर कब्ज़ा कर लिया अतः उस समय  राव बैरीसाल अथवा भाण बूँदी का शासक था। महाराणा कुम्भा बूँदी के हाड़ा शासकों का मेवाड़ से तनावपूर्ण संबंध हो गया था। राव बैरीसाल ने मेवाड़ के  माँडलगढ़ दुर्ग सहित ऊपरमाल के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। अत: महाराणा कुम्भा ने 1436 ई. में इन स्थानों को पुनः प्राप्त करने के लिए बूँदी के राव बैरीसाल के विरुद्ध सैनिक अभियान प्रारंभ किया। जहाजपुर के समीप दोनों ही सेनाओं में गंभीर युद्ध हुआ, जिसमें बूँदी की हार हुई। बूँदी ने मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली। मांडलगढ़, बिजौलिया, जहाजपुर एवं पूर्वी-पठारी क्षेत्र मेवाड़-राज्य में मिला लिए

सिरोही विजय - 


सिरोही के शासक शेषमल ने अनेक गावो पर आक्रमण कर के अपने अधिकार में कर लिया कारण था मोकल की मृत्यु के पश्चात अव्यवस्था होने लगी | महाराणा कुम्भा ने डोडिया सरदार नरपति  के सेनापतित्व के रूप में वहाँ सेना भेजी | नरपति के अचानक आक्रमण से शेषमल कांप उठा | नरपति ने 1437 ई. आबू तथा सिरोही राज्य के कई हिस्सों को जीत लिया। उन भागो को पुनः मेवाड़ में मिला लिया | शेषमल ने आबू को पुनः जीतने के प्रयास में गुजरात के सुल्तान से भी सहायता ली किन्तु असफलता ही हाथ लगी। महाराणा कुम्भा की आबू विजय का बड़ा महत्व है। गोडवाड़ पहले से ही मेवाड़ के अधीन था, अतः इसकी रक्षा के लिए बसंतगढ़ और आबू को मेवाड़ में मिलाना जरूरी था।

महाराणा कुम्भा की बाल्यावस्था को देखकर मंडोर (मारवाड़) के रणमल मेवाड़ चला आया था। महाराणा कुम्भा के प्रतिद्वंदियों को समाप्त करने में उसका विशेष योगदान रहा। इसीलिए उसका मेवाड़ में प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। रणमल ने परिस्थियों का लाभ उठा कर अपने आप को यहाँ प्रतिष्ठित करने लगा । इसके लिए उसने अपनी बहन और महाराणा कुम्भा की दादी मां हंसा बाई के प्रभाव का पूरा-पूरा लाभ उठाने का प्रयास किया। उसने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर मारवाड़ के राठौड़ों को नियुक्त कर दिया, जिससे मेवाड़ के सामंत उसके विरोधी हो गए। रणमल के बढ़ते प्रभाव से मेवाड़ के सामंत परेशान थे |

ओझा के अनुसार चूंडावत राघव देव को उसने जिस अमानवीय ढंग से वध करवा दिया जिससे महाराणा महाराणा कुम्भा के मन में उसके प्रति संदेह उत्पन्न हो गया तथा महाराणा महाराणा कुम्भा उसके प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे किन्तु अपने पिता का मामा होने के कारण उसे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी महाराणा महाराणा कुम्भा ने अपने तरीके  से रणमल के प्रभाव को कम करने के लिए मेवाड़ से गए हुए सामंतों को पुनः मेवाड़ में आश्रय देना शुरू किया। महपा पंवार और चाचा के पुत्र एक्का के अपराधों को भी क्षमा कर अपने यहाँ शरण दे दी। राघवदेव का बडा भाई चूण्डा, जो मालवा में था, वह भी पुनः मेवाड़ लौट आया। रणमल ने खूब प्रयास किए कि चूण्डा को मेवाड़ में प्रवेश नहीं मिले, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। महाराणा कुम्भा ने धीरे-धीरे रणमल के विरुद्ध ऐसा व्यूह तैयार किया कि उसकी हत्या तक कर दी गई । रणमल की हत्या के समाचार फैलते ही उसका पुत्र जोधा अन्य राठौड़ो के साथ मारवाड़ की तरफ भागा। तब चूण्डा ने भागते हुए राठौड़ो पर आक्रमण किया। मारवाड़ की ख्यात के अनुसार जोधा के साथ 700 सवार थे और मारवाड़ पहुँचने तक केवल सात ही शेष रहे। मेवाड़ की सेना ने आगे बढ़कर मंडोर पर अधिकार कर लिया, किन्तु महाराणा की दादी हंसाबाई के बीच-बचाव करने के कारण जोधा इसको पुनः लेने में सफल हुआ।


वागड़ पर विजय -



वागड़ राज्य भी मेवाड़ के वंशजों को ही था पर उनकी राजनितिक तृष्णा बढ़ गयी तथा गुजरात से व्यापार का प्रमुख मार्ग होने से मेवाड़ को कठिनाई होने लगी और वागड़ के लोग मेवाड़ के लिए परेशानी करने लगे अतः महाराणा कुम्ब्कर्ण ने वागड़ पर चढ़ाई कर दी और बड़ी आसानी से वागड़ पर अधिकार कर लिया |

मेरो पर विजय :  


बदनोर के आस-पास ही मेरों की बड़ी बस्ती थी। ये लोग सदैव विद्रोह करते रहते थे। महाराणा कुम्भा ने इनके विद्रोह का दमन कर विद्रोही नेताओं को कड़ा दंड दिया।

रणथंभौर के आस पास का क्षेत्र 


इस भाग में मेवाड़ के अतिरिक्त कछावा(वर्तमान जयपुर ) और मुश्लिम शाषक भी अधिकार करने का प्रयत्न कर रहे थे | रणथंभौर की पराजय के बाद चौहानों के हाथ से भी यह क्षेत्र जाता रहा। फरिश्ता के अनुसार महाराणा कुम्भा ने इस क्षेत्र पर आक्रमण करके रणथम्भौर पर अधिकार कर लिया था। साथ ही चाटसू (वर्तमान चाकसू )आदि के भाग के भी उसने जीत लिया था।

अन्य महत्वपूर्ण विजये: 


महाराणा कुम्भा ने अपने जीवन कल में अनेक युद्ध लड़ें | और कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा | कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुम्भा ने कुछ और नगरो को भी जीता था पर भोगोलिक स्थिति और नाम ज्ञात नहीं हो सके क्योकि इनके नाम संस्कृत में लिखे गए थे | जैसे - नारदीय नगर, वायसपुर आदि। इस भांति महाराणा कुम्भा ने अपनी विजयों से मेवाड़ के लिए एक वैज्ञानिक सीमा निर्धारित की, जो मेवाड़ के प्रभुत्व को बढ़ाने में सहायक रही।


मेवाड़ के महत्वपूर्ण संघर्ष : 



महाराणा महाराणा कुम्भा के प्रसरवादी की वजह से मेवाड़, गुजरात और मालवा में संघर्ष चलता रहा मालवा के लिए एक शक्तिशाली मेवाड़ का होना खतरे से खाली नहीं था | इनमे संघर्ष के निम्न महत्वपूर्ण कारण थे |

1.जब दिल्ली में सता उखाड़ने  लगी तो छोटे छोटे राज्य स्वतंत्र होने लगे |और अपना स्वामित्व ज़माने लगे |

2 महाराणा कुम्भकर्ण ने मालवा के उतराधिकारी संघर्ष में   योगदान दिया | 1435 इसवी में मालवा के सुल्तान हुशंगशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र  मुहम्मद शाह सुल्तान बना  | जिसे उसके वजीर  ने महमूद शाह को पदच्युत कर 1436 में सिंहासन हड़प लिया। हुशंगशाह के दूसरे पुत्र उमराव खां ने महाराणा कुम्भा से सहायता मांगी और उसने उसे पर्याप्त सैनिक सहायता दी। इस बीच महमूद शाह ने अचानक आक्रमण करके उमराव खां को मरवा डाला किन्तु किन्तु महाराणा कुम्भा ने मालवा के उत्तराधिकारी संघर्ष में सक्रिय भाग लेकर महमूद शाह  को अपना शत्रु बना डाला था।

3. तीसरा कारण था मालवा ने मेवाड़ के विद्रोही सामंतो को शरण देना | महाराणा मोकल के हत्यारे महपा पंवार विद्रोही सामंत चुंडा और कुम्भा के भाई खेमा (खेमकरण ) आदि को मालवा में शरण दी गयी | ये सारे मिल कर मेवाड़ के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे |  महाराणा कुम्भा ने सुल्तान को चेताया की इन विद्रोहियों को शरण न दे लेकिन सुल्तान ने एक नहीं मानी | फलतः दोनों राज्य युद्ध के लिए आखड़े हुए |

1. सारंगपुर का युद्ध (1364- 1382 ईस्वी)


विद्रोही महपा को सुल्तान ने शरण दे दी | महाराणा कुम्भा ने उसे लोटाने की मांग की | सुल्तान ने महपा को देने से मना कर दिया अतः 1437 ई. में महाराणा कुम्भा ने एक विशाल सेना सहित मालवा पर आक्रमण कर दिया | महाराणा कुम्भा  ने मंदसोर, जावरा को जीतता हुआ सारंगपुर पर चढ़ाई कर दी | इस युद्ध में सुल्तान महमूद खिलजी की हार हुई | सुल्तान को बंधी बना कर चित्तोडगढ लाया गया | वहा विजय के उपलक्ष्य में महाराणा ने  पुरे गढ़ को सजाया | उदारता का परिचय देते हुए महाराणा ने सुल्तान को मुक्त कर दिया |

2. कुम्भलगढ़ पर आक्रमण : 


महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए सबसे पहले 1442 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। मेवाड़ के सेनापति दीपसिंह को मार कर बाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया। इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु सेना ने चित्तौड़ को जीतना चाहा। इस बात को सुनकर महाराणा बूँदी से चित्तौड़ वापस लौट आए जिससे महमूद की चित्तौड़-विजय की यह योजना सफल नहीं हो सकी और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया।

3. गागरौन-पर आक्रमण (1443-44 ई.)


मालवा के सुल्तान ने महाराणा कुम्भा की शक्ति को तोड़ना कठिन समझ कर मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गों पर अधिकार करने की चेष्टा की। अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया। गागरौन उस समय खींची चौहानों के अधिकार में था। मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड़ और मालवा के लिए इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व  था। अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को घेर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया और गागरौन पर खलजी का अधिकार हो गया। डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा था।



4. माडलगढ़ पर आक्रमण :



1444 ई. में महमूद खलजी ने गागरौन पर अधिकार कर लिया । गागरौन की सफलता ने उसको माँडलगढ पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। महाराणा कुम्भा ने इसकी रक्षा का पूर्ण प्रबंध कर रखा था और तीन दिन के कड़े संघर्ष के बाद खलजी को करारी हार का सामना करना पड़ा।

5. मांडलगढ़ पर दूसरा आक्रमण :


महमूद खलजी  ने 11 अक्टूबर 1446 ई. को माँडलगढ़ पर फिर आक्रमण कर दिया  । किन्तु इस बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली और अगले कुछ  वर्षों तक वह मेवाड़ पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका।

6. अजयमेरु -माँडलगढ अभियान


पहले की हार का बदला लेने के लिए सुल्तान महमूद ने अगले ही वर्ष 1455 ई. में सुल्तान ने महाराणा कुम्भा के विरुद्ध अभियान प्रारंभ किया। मंदसौर पहुँचने पर उसने अपने पुत्र गयासुद्दीन को रणथंभौर की ओर भेजा और खुद  सुल्तान ने जाइन का दुर्ग जीत लिया। जाइन का दुर्ग जितने के बाद सुल्तान अजमेर की ओर रवाना हुआ। अजमेर तब महाराणा कुम्भा के पास में था तथा  उसके प्रतिनिधि के रूप में राजा गजधरसिंह वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था को देख रहे थे किन्तु इस बार भी  सुल्तान को पराजित होकर मांडू लौटना पड़ा था। 1457 ई. में वह माँडलगढ लेने के लिए फिर इधर आया। जब महाराणा कुम्भा गुजरात युद्ध में व्यस्त थे तब अक्टूबर 1457 ई. में उसका माँडलगढ़ पर अधिकार हो गया। लेकिन गुजरात से लोटते ही उन्होंने पुनः अजमेर को अपने अधीन कर लिया ।

7. कुम्भलगढ़ पर आक्रमण (1459 ई)-


मालवा के सुल्तान ने 1459 ई. में कुम्भलगढ़ पर फिर आक्रमण किया। इस युद्ध में महमूद को गुजरात के सुल्तान ने भी सहायता दी थी, किन्तु सफलता नहीं मिली।

8. जावर आक्रमण


1467 ई. में एक बार फिर   मालवा का सुल्तान जावर तक पहुँचा परन्तु इस बार भी महाराणा कुम्भा ने उसको यहाँ से जाने के लिए बाध्य कर दिया।
 

मेवाड़-गुजरात संघर्ष - (1455 ई. से 1460 ई)


नागौर की वजह से मेवाड़ और गुजरात में संघर्ष हुआ | नागौर के तत्कालीन  शासक फिरोज खां की मृत्यु होने पर और उसके छोटे पुत्र मुजाहिद खां द्वारा नागौर पर अधिकार करने हेतु बड़े लड़के शम्सखां ने नागौर प्राप्त करने में महाराणा कुम्भा की सहायता माँगी | महाराणा कुम्भा ने अच्छा अवसर समझ  मुजाहिद को वहाँ से हटा कर महाराणा ने शम्सखां को गद्दी पर बिठाया परंतु गद्दी पर बैठते ही शम्सखां अपने सारे वायदे भूल गया और उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। स्थिति की गंभीरता को समझ कर महाराणा कुम्भा ने शम्सखां को नागौर से निकाल कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। शम्सखां भाग कर गुजरात पहुँचा और अपनी लडकी की शादी सुल्तान से कर, गुजरात से सैनिक सहायता प्राप्त कर महाराणा की सेना के साथ युद्ध करने को बढ़ा, परंतु विजय का सेहरा मेवाड़ के सिर बंधा। मेवाड़-गुजरात संघर्ष का यह तत्कालीन कारण था। 1455 से 1460 ई. के बीच मेवाड़-गुजरात संघर्ष के दौरान निम्नांकित युद्ध हुए -

1. नागौर युद्ध (1456 ई) -


नागौर के पहले युद्ध में शम्सखां की सहायता के लिए भेजे गए गुजरात के सेनापति रायरामचंद्रमलिक गिदई महाराणा महाराणा कुम्भा से हार गए थे। अतएव इस हार का बदला लेने तथा शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बिठाने के लिए 1456 ई. में गुजरात का सुल्तान कुतुबुद्दीन सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ आया।

2. मालवा-गुजरात का संयुक्त अभियान (1457)


गुजरात एवं मालवा के सुल्तानों ने चांपानेर नामक स्थान पर समझौता किया। इतिहास में यह चांपानेर की संधि के नाम से जाना जाता है, इसके अनुसार दोनों की सम्मिलित सेनाएँ मेवाड़ पर आक्रमण करेगी तथा विजय के बाद मेवाड़ का दक्षिण भाग गुजरात में तथा शेष भाग मालवा में मिला लिया जाएगा। कुतुबुद्दीन आबू को विजय करता हुआ आगे बढ़ा और मालवा का सुल्तान दूसरी ओर से बढ़ा। महाराणा कुम्भा ने दोनों की संयुक्त सेना का साहस के साथ सामना किया और कीर्ति-स्तम्भ-प्रशस्ति व 'रसिक प्रिया’ के अनुसार इस मुकाबले में महाराणा कुम्भा विजयी रहा।

3. सुल्तान कुतुबुद्दीन का आक्रमण


सिरोही के देवड़ा राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से प्रार्थना की कि वह आबू जीतकर सिरोही उसे दे दे। सुल्तान ने इसे स्वीकार कर लिया। आबू को महाराणा कुम्भा ने देवड़ा से जीता था। सुल्तान ने अपने सेनापति इमादुलमुल्क को आबू पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसकी पराजय हुई। इसके बाद सुल्तान ने कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई कर तीन दिन तक युद्ध किया। बेले ने इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की पराजय बताई है किन्तु गौ. ही. ओझा, हरबिलास शारदा ने इस कथन को असत्य बताते हुए इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की जीत ही मानी है। उनका मानना है कि यदि सुल्तान जीत कर लौटता तो पुनः मालवा के साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करता। सुल्तान का दूसरा प्रयास भी असफल रहा।

4. नागौर-विजय (1458) -


महाराणा कुम्भा ने 1458 ई. में नागौर पर आक्रमण किया जिसके प्रमुख कारण इस प्रकार है
 
1.    नागौर के हाकिम शम्सखां और मुसलमानों के द्वारा बहुत ज्यादा मात्र में गो-वध करना।
2.   शम्सखांने  मालवा के सुल्तान के मेवाड़ पर आक्रमण के समय महाराणा के विरुद्ध सहायता की थी।
3.    शम्सखां ने किले की मरम्मत शुरू कर दी थी। अत: महाराणा ने नागौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

5. कुम्भलगढ़-पर कुतुबद्दीन का आक्रमण  (1458 ई) -


कुतुबुद्दीन का 1458 ई में कुम्भलगढ़ पर अंतिम आक्रमण हुआ जिसमें उसे महाराणा कुम्भा से पराजित होकर लौटना पड़ा। तभी 25 मई व 458 ई. को उसका देहांत हो गया।

6. महमूद बेगड़ा का आक्रमण (1459 ई) -


कुतुबुद्दीन के बाद महमूद बेगड़ा गुजरात का सुल्तान बना। उसने 1459 ई. में जूनागढ़ पर आक्रमण किया। वहाँ का शासक महाराणा कुम्भा का दामाद था। अत: महाराणा उसकी सहायतार्थ जूनागढ़ गया और सुल्तान को पराजित कर भगा दिया।

इस प्रकार महाराणा कुम्भा  ने न केवेल अपनी दूरदर्शिता का अपितु शक्ति अवम कोशल का भरपूर प्रदर्शन किया और मेवाड़ की राज्य सीमा का विस्तार कर अपनी कीर्ति में चार चाँद लगाए, जिसकी गवाही आज भी चित्तौड़ की धरती पर खड़ा कीर्ति-स्तम्भ देता है, जिसके उन्नत शिखर आज चीख चीख कर कह रहे है की है राजपूत वीरो तुम्हारा इतिहास ऐसी कई महान गाथाओ से भरा पड़ा है तुम इस आधुनिकता में कही खो न जाओ | महाराणा कुम्भा के रण कोशल की ये गाथा कहती है की उनके जैसा चातुर्य न किसी शासक में था और न अब शायद  किसी में होगा | उन्होंने न केवल बाह्य आक्रमण अपितु आन्तरिक शांति व समृधि की स्थापना भी की |

उसने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति एवं दूरदर्शिता से मेवाड को महाराज्य बना दिया था। एक महान शासक के रूप में महाराणा कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विजय-नीति तथा कूटनीति है। उसने अपने काल में कई दुर्गों का निर्माण करवा कर मेवाड़ को वैज्ञानिक एवं सुरक्षित सीमायें प्रदान कर आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं समृद्धि की स्थापना की।


इस तरह  दिल्ली एवं गुजरात के सुल्तानों  ने उस महान महाराणा को  'हिन्दू सुरत्राण'/हिन्दू सुरतान’  जैसी उपाधि से  विभूषित किया।  इसके साथ ही उसने मेवाड़ में कई मंदिरों तथा स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया और साहित्य, संगीत तथा कला के क्षेत्र में भी विशिष्ट आयाम स्थापित किए
मशहूर लेखक डॉ जी.शारदा ने तो उसे राणा प्रताप तथा राणा सांगा से भी अधिक प्रतिभावान माना है और लिखा है कि महाराणा महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ के गौरवशाली भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।
महाराणा कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात विजय नीति तथा कूटनीति है। अतः यह कहा जा सकता है की महाराणा कुम्भा एक बहुत प्रतिभाशाली कूटनीतिज्ञ थे |

महाराणा कुम्भा का स्वर्गवास : 

ऐसे वीर,प्रताभी महाराणा का अंत बहुत दुखद हुआ | 1468 ईस्वी में कुम्भा के पुत्र उदा ने राज्य पिपासा में महाराणा की हत्या कर डी अवम स्वयं सिहासन पर आरुढ़ हो गया | मशहूर फॉरेन लेखक कर्नल टॉड ने लिखा है कि "महाराणा कुम्भा ने अपने राज्य को सुदृढ़ किलों द्वारा संपन्न बनाते हुए ख्याति अर्जित कर अपने नाम को चिर स्थायी कर दिया।"

 कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा को महान दानी और प्रजापालक बताया गया है उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा है , डॉ जी.शारदा ने उसे 'महान शासक, महान सेनापति, महान निर्माता और महान विद्वान' कहा है। प्रजाहित को ध्यान रखने के कारण प्रजा उसमें अत्यधिक विश्वास और श्रद्धा रखती थी।

महाराणा कुम्भा संगीतकार,साहित्य प्रेमी , संगीताचार्य ,वास्तुकला का पुरोधा, नाट्यकला में कुशल , कवियों का शिरोमणि , अनेक ग्रंथो का रचियता, वेद, स्मृति, दर्शन, उपनिषद, व्याकरण आदि का विद्वान, संस्कृत आदि भाषाओँ का ज्ञाता, प्रजापालक, दानवीर, जैसे कई गुण सर्वतोन्मुखी गुण विद्यमान थे जो राणा सांगा में नहीं थे

महाराणा कुम्भा की हत्या के बाद मेवाड़-


कुम्भा की हत्या करने वाले उदा को कोई भी महाराणा के रूप में स्वीकार करने को तैयार नही था | अतः किसी भी तरह उदा को हटाने के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया था | उदा और उसके भाइयो में आपसी रंजिस बढती चली गयी | और अंतत: रायमल ने राज सिहासन अपने अधिकार में कर लिया |

इस बीच ऊदा मालवा के सुल्तान के पास सहायतार्थ पहुंचा। मालवा के सुल्तान गयासशाह ने मेवाड़ में अशांति करते हुए कई इलाके हथिया लिए किन्तु रायमल की सूझबूझ से उसके चितौड़ और मांडलगढ़ के आक्रमणों में सुल्तान की हार हुई। इस प्रकार रायमल ने मेवाड़ की स्थिति को सुदृढ़ करना आरम्भ किया तथा मेवाड़ और सुदृढ़ करने के लिए जोधपुर के राठौड़ों व हाड़ाओं से मित्रता की, किन्तु इस बीच उसके पुत्रों में संघर्ष हो जाने और दो पुत्रों की मृत्यु होने तथा सांगा के मेवाड़ छोड़ कर चले जाने से उसका जीवन दुःखमय हो गया।

 इसी आघात के कारण रायमल की हालत बहुत बिघाड गयी हो गयी | जैसे ही पिता के अस्वस्त होने की खबर सांगा को लगी वह पुनः मेवाड़ आ गया अंतत: रायमल ने अपने पुत्र सांगा (संग्राम सिंह) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और कुछ ही दिनों बाद रायमल की मृत्यु हो गयी , जो उसकी (रायमल की) मृत्यु के बाद 1508 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। सांगा के मेवाड़ की सत्ता सँभालते ही मेवाड़ का उत्कर्षकाल पुनः प्रारंभ हो गया।


किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुनः बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग मेंं श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया | 
मेवाड़ के राणा कुुुम्भा का स्थापत्य युग स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है, क्योंकि कुुुम्भा ने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों, मन्दिरों एंव विशाल राजप्रसादों का निर्माण कराया, कुम्भा ने अपनी विजयों के लिए भी अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण कराया, वीर-विनोद के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुुुम्भा ने कुल 32 दुर्गों का निर्माण कराया था जिसमें कुभलगढ़, अलचगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग, बसन्तगढ़ आदि मुख्य माने जाते हैं
राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र उदयसिंह के हाथों हुई। 



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