भाग १
मेवाड़ की स्थापना || Establishment of Mewar ||:-
भारतीय इतिहास में मेवाड़ का बहुत बड़ा योगदान है | यदि मेवाड़ से सम्बन्धित इतिहास इसमें से हटा दिया जाय तो यह इसका चोथाई ही रह जायेगा | मेवाड़ वर्तमान भारत के इतिहास में राजस्थान राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित है इसमें वर्तमान के उदयपुर, राजसमन्द, चित्तोडगढ़ , भीलवाड़ा जिले आते है यहाँ कई सो सालो तक राजपुत राजाओ का राज रहा है सन १५५० के आसपास मेवाड़ की राजधानी चित्तोरगढ़ रही थी | उस समय यहाँ के राजा महाराणा प्रतापसिंह थे | उन्होंने अकबर से कई युद्ध किये उन्ही महाराणा के कारण मेवाड़ ज्यादा प्रसिद्ध हुआ | और आज भी लोगो के मन में मेवाड़ के प्रति सहानुभूति है | वर्तमान राजस्थान के दक्षिण पश्चिम भाग पर गुहिलोत/गुहिल बाद में सिसोदिया वंश का राज रहा था | इस वंश का संस्थापक गुहिल था | गुहिल ने ५६६ ई. (566) में गुहिल राजवंश की स्थापना की | प्रसिद्ध पुस्तक “ नैणसी री ख्यात” में गुहिल वंश के बारे में उल्लेख है | इसमें गुहिल वंश की 24 शाखाओ का वर्णन मिलता है | इन सब में मेवाड़ , बागड़ और प्रताप शाखा ज्यादा प्रसिद्ध है | प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हिराचंद ओझा गुहिलो को सूर्यवंशी मानते है जबकि डी आर भंडारकर इनको ब्राह्मण मानते है | वैसे कई इतिहासकार बप्पारावल को भी गुहिल वंश का संस्थापक मानते है |
मेवाड़ की भोगोलिक स्थिति || Geographical Location Of Mewar ||:
यद्दपि मेवाड़ उस समय एक शक्तिशाली राज्य था | मेवाड़ में एक और पहाड़ है उत्तरी भाग समतल है ! बनास व उसकी सहायक नदियों की समतल भूमि है ! बनास कुम्भल गढ़ के यहाँ से चलती है | चम्बल भी मेवाड़ से होकर गुज़रती है !मेवाड़ के दक्षिणी भाग में अरावली पर्वतमाला है !जो की बनास व उसकी सहायक नदियों को साबरमती व माही से अलग करती है ! जो की गुजरात सीमा में है !अरावली उत्तरपश्चिम क्षेत्र में है! इस कारण यहाँ उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर के भण्डार है ! जिसका प्रयोग लोग गढ़ निर्माण में करना पसंद करते थे ! .मेवाड़ क्षेत्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में आता है ! वर्षा का स्तर 660 मम/वर्ष, उत्तर पूर्व में अधिकतया !. यहाँ ९०% वर्षा जून से सितम्बर के बीच पड़ती है !
मेवाड़ की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र : || Capitals of Mewar ||
मेवाड़ क्षेत्र की सीमा हमेशा से परिवर्तित रही है इसलिए सीमाओं के अनुरुप क्षेत्र की राजधानियाँ भी समयानुसार बदलती रही थी। चित्तौड़ गढ़ के उत्तर में, १.५ मील दूर स्थित "नगरी' स्थान भिबि- जनपद की राजधानी था, जिसे उस समय में मंजिमिका के नाम से जाना जाता था। इस जनपद के नष्ट होने के पश्चात् ७ वीं शताब्दी तक प्रामाणिक विवरणों के अभाव में इस प्रदेश की राजनीतिक अवस्था का विवरण ज्ञात नहीं होता है, किन्तु बप्पा रावल द्वारा शासन अधिकृत करने के समय से १३ वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक, देलवाड़ा, नागद्राह(नागदा), चीखा, एकलिंग तथा अघाटपुर (आयड़) मेवाड़ राज्य की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र रह चुके थे।
1. रावल जैतसिंह (१२१३ - १२५० ई.) के समय यहाँ की राजधानी नागद्रह (नागदा) थी, नागदा को सुल्तान इल्नुतमिश ने नष्ट कर दिया ।
2. रावल जैतसिंह ने अघाटपुर( aayad) को नवीन राजधानी के रूप में विकसित किया।
3. रावल जैतसिंह के पुत्र रावल तेजसिंह (१२५० - १२७३ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
4. १४ - १५ वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की राजधानी रहे हैं।
5. राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
6. राणा प्रताप (१५७२ -१५९७ ई.) तथा उनके पुत्र राणा अमरसिंह प्रथम (१५९७ - १६२० ई.) ने मेवाड़ मुगल संघर्ष काल में गांगुंदा व चावंड नामक स्थानों को संघर्ष कालीन राजधानियाँ बनायी।
7. राणा उदयसिंह (१५४० - १५७२ ई.) ने पीछोली नामक गाँव को अपनी राजधानी बनाया। पीछोली गाँव ही १७ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उदयपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
8. राणा कर्णसिंह (१६२० - १६२८ ई.) के बाद से उदयपुर नगर ही मेवाड़ की स्थायी राजधानी रहा |
9. अंतिम महाराणा भूपालसिंह द्वारा १८ अप्रैल १९४८ ई. में मेवाड़ का विलय भारत में कर दिया गया।
मेवाड़ की भोगोलिक स्थिति || Geographical Location Of Mewar ||:
यद्दपि मेवाड़ उस समय एक शक्तिशाली राज्य था | मेवाड़ में एक और पहाड़ है उत्तरी भाग समतल है ! बनास व उसकी सहायक नदियों की समतल भूमि है ! बनास कुम्भल गढ़ के यहाँ से चलती है | चम्बल भी मेवाड़ से होकर गुज़रती है !मेवाड़ के दक्षिणी भाग में अरावली पर्वतमाला है !जो की बनास व उसकी सहायक नदियों को साबरमती व माही से अलग करती है ! जो की गुजरात सीमा में है !अरावली उत्तरपश्चिम क्षेत्र में है! इस कारण यहाँ उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर के भण्डार है ! जिसका प्रयोग लोग गढ़ निर्माण में करना पसंद करते थे ! .मेवाड़ क्षेत्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में आता है ! वर्षा का स्तर 660 मम/वर्ष, उत्तर पूर्व में अधिकतया !. यहाँ ९०% वर्षा जून से सितम्बर के बीच पड़ती है !
मेवाड़ की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र : || Capitals of Mewar ||
मेवाड़ क्षेत्र की सीमा हमेशा से परिवर्तित रही है इसलिए सीमाओं के अनुरुप क्षेत्र की राजधानियाँ भी समयानुसार बदलती रही थी। चित्तौड़ गढ़ के उत्तर में, १.५ मील दूर स्थित "नगरी' स्थान भिबि- जनपद की राजधानी था, जिसे उस समय में मंजिमिका के नाम से जाना जाता था। इस जनपद के नष्ट होने के पश्चात् ७ वीं शताब्दी तक प्रामाणिक विवरणों के अभाव में इस प्रदेश की राजनीतिक अवस्था का विवरण ज्ञात नहीं होता है, किन्तु बप्पा रावल द्वारा शासन अधिकृत करने के समय से १३ वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक, देलवाड़ा, नागद्राह(नागदा), चीखा, एकलिंग तथा अघाटपुर (आयड़) मेवाड़ राज्य की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र रह चुके थे।
1. रावल जैतसिंह (१२१३ - १२५० ई.) के समय यहाँ की राजधानी नागद्रह (नागदा) थी, नागदा को सुल्तान इल्नुतमिश ने नष्ट कर दिया ।
2. रावल जैतसिंह ने अघाटपुर( aayad) को नवीन राजधानी के रूप में विकसित किया।
3. रावल जैतसिंह के पुत्र रावल तेजसिंह (१२५० - १२७३ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
4. १४ - १५ वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की राजधानी रहे हैं।
5. राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई.) ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
6. राणा प्रताप (१५७२ -१५९७ ई.) तथा उनके पुत्र राणा अमरसिंह प्रथम (१५९७ - १६२० ई.) ने मेवाड़ मुगल संघर्ष काल में गांगुंदा व चावंड नामक स्थानों को संघर्ष कालीन राजधानियाँ बनायी।
7. राणा उदयसिंह (१५४० - १५७२ ई.) ने पीछोली नामक गाँव को अपनी राजधानी बनाया। पीछोली गाँव ही १७ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उदयपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
8. राणा कर्णसिंह (१६२० - १६२८ ई.) के बाद से उदयपुर नगर ही मेवाड़ की स्थायी राजधानी रहा |
9. अंतिम महाराणा भूपालसिंह द्वारा १८ अप्रैल १९४८ ई. में मेवाड़ का विलय भारत में कर दिया गया।
ग्रामवासियों का दैनिक जीवन / दिनचर्या
मेवाड़ में ग्राम वासी प्रातः 3 से 4 बजे उठजाते है । दैनिक नित्य"- कर्म से निवृत होने के बाद स्रियाँ आटा पीसने बैठ जाती थी। मेरी दादी भी सुबह आटा पिसती थी जब हम बहुत छोटे थे प्रायः प्रतिदिन दैनिक उपभोग के हिसाब से एक- दो सेन अनाज पीसा जाता था। इसके बाद वे कुँए से पानी लाती थी। दूसरी तरफ कृषक लोग उषा- बेला में ही हल, बैल व अन्य मवेशियों को लेकर खेत चल देते थे । में जब छोटा था तो मुझे भी सुबह सुबह भैस को चराने जाना पड़ता था | गाय भेस चराने वाले शाम को 5 बजे आते थे | स्रियाँ प्रातः कालीन गृह- कार्य से निवृत्त होकर पुरुषों का हाथ बँटाने के लिए खेत से घर पहुँच जाती थी। खेत में ही दिन का भोजन भी होता था | जो प्रायः राब या छाछ, जब या मक्की की रोटी और चटनी- भाजी होती थी। दादा / दादिया / वृद्धाएँ घर में बच्चों की देखभाल करती थीं। बच्चे बड़े होकर गोचरी का कार्य करते थे। सायंकाल में किसान जलाने के लिए लकडिया तथा पशुओं के चारे के साथ घर लौटते थे। साल में खेती के व्यस्ततम दिनों में फसल की पाणत (सिचाई) के लिए रात को भी खेत में रहना पड़ता था। जब फसल पक जाती तो फसलों की सुरक्षा के लिए भी किसान खेतों में बनी डागलियों में रात बिताते थे । खेत में डांकला/डागलिया के ऊपर बैठ के कुछ बजने के लिए ले जाते थे ताकि उसकी आवाज से पक्षी फसल को न खाए | फसल कटाई के लिए पूरा परिवार खेत में जुट जाता था। वही व्यावसायिक जातियाँ अपना पूरा दिन कर्मशालाओं में बिताते थे। वहीं वे दिन का भोजन करते थे। शाम में लौटकर भोजन के बाद लोग पारस्परिक बैठक, खेलकूद, किस्से कहानियों, भजन- कीर्त्तन व ग्राम्य स्थिति की चर्चा के माध्यम से आमोद- प्रमोद करते थे। सर्दियों में लोग अलाव के चारों तरफ लंबी बैठकियाँ करते थे। ग्राम्य- नगरों का जीवन भी वैसे तो ग्राम्य- जीवन के प्रभाव से मुक्त नहीं था, लेकिन लोगों के पास साधन होने की स्थिति में वे "भगतणों'(एक लोग प्रकार के लोग जो नाचने का काम करते है ) का नृत्य देखने, मुजरे सुनने, दरबारी क्रिया- कलापों में सेवकाई करने, भजन- कीर्त्तन तथा दरबार- यात्राओं की जय- जय करने में व्यस्त रहते थे। कई गावो में रात के समय में अलग अलग जातियों की भुवाई नाचती थी | दैनिक गोठ (मित्र भोग), अमल- पानी, भांग, गांजा, शराब आदि का व्यसन कुलीन वर्ग उर्फ पटेल वर्ग के दैनिक जीवन का हिस्सा था। मुद्रा का प्रचलन मेवाड़ में सिक्के कम ही प्रचलन में थे | लेकिन आर्थिक लेंन देंन वस्तु विनिमय से किया जाता था | राज्य के कर्मचारियों तथा सेवको को कृषि भूमि , कपडे तथा हीरे जवाहरात दिए जाते थे | तथा सिक्के नाम मात्र के दिए जाते थे | आंतरिक व्यापार में मुद्राओं के साथ- साथ १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कौड़ियों का भी प्रचलन रहा।
कौड़ियों से जुड़ी गणनाओं में एक है-
- २० भाग = १ कौड़ी
- २० कौड़ी = आधा दाम
- २ आधा दाम = १ रुपया सर जॉन माल्कन के अनुसार
- ४ कौड़ी = १ गण्डा
- ३ गण्डा = १ दमड़ी
- २ दमड़ी = १ छदाम
- २ छदाम = १ रुपया (अधेला)
- ४ छदाम = १ रुपया = ९६ कौड़ी
1. सन 1774 ई. में उदयपुर में टकसाल खोली गई।
2. भीलवाड़ा की टकसाल 17 वीं शताब्दी के आसपास स्थानीय वाणिज्य- व्यापार के लिए "भीलवाड़ी सिक्के' ढ़ालती थी।
3. राणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल से आलमशाही सिक्कों के स्थान पर कम चाँदी के मेवाड़ी
सिक्के का प्रचलन शुरु हो गया। ये सिक्के चित्तौड़ी और उदयपुरी सिक्के कहे गये।
100 आलमशाही सिक्के = 125 चित्तौड़ी सिक्के
4. राणा अरिसिंह के कल में चांदी के नए सिक्के ढाले गए |
इनका मूल्य था--
1 अरसी शाही सिक्का = 1 चित्तौड़ी सिक्का = 1 रुपया 4 आना 6 पैसा।
राणा भीम सिंह के काल में मराठे अपनी बकाया राशियों का मूल्य- निर्धारण सालीमशाही सिक्कों के आधार पर करने लगे थे। इनका मूल्य था --- सालीमशाही 1 रुपया = चित्तौड़ी 1 रुपया 8 आना
5. चांदोड़ी- सिक्के' -- सिक्के चाँदी, तांबा तथा अन्य धातुओं की निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाये जाते थे।
6. त्रिशूलिया, ढ़ीगला तथा भीलाड़ी तांबे के सिक्के भी प्रचलित हुए
7. 1805-1870 के बीच सलूम्बर जागीर द्वारा "पद्मशाही' ढ़ीगला सिक्का चलाया गया |
8. 1805-1870 भीण्डर जागीर में महाराजा जोरावरसिंह ने "भीण्डरिया' चलाया |
9. "मेहता' प्रधान ने "मेहताशाही' मुद्रा चलाया, जो बड़ी सीमित संख्या में मिलते हैं।
महाराणा स्वरुप सिंह के समय में स्वरुपशाही स्वर्ण व रजत मुद्राएँ ढ़ाली जाने लगी महाराणा स्वरूप सिंह ने ब्रिटिशो से स्वीकृति लेने के बाद आना , दो आना , आठ आना , सिक्के ढाले जाने लगे | जिससे हिसाब किताब आसानी से होने लगा ब्रिटिश भारत सरकार के सिक्कों को भी राज्य में वैधानिक मान्यता थी। इन सिक्कों को कल्दार कहा जाता था। मेवाड़ी सिक्कों से इसके मूल्यांतर को बट्टा कहा जाता था। चांदी की मात्रा का निर्धारण इसी बट्टे के आधार पर होता था। उदयपुरी २.५ रुपया को २ रुपये कल्दार के रूप में माना जाता था। १९२८ ई. में नवीन सिक्कों के प्रचलन के बाद तत्कालीन राणा भूपालसिंह ने राज्य में प्रचलित इन प्राचीन सिक्कों के प्रयोग को बंद करवा दिया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यहाँ की आर्थिक व्यवस्था, वस्तु- विनिमय की परंपरा तथा जन- जीवन पर ग्रामीण वातावरण के प्रभाव ने मुद्रा की आवश्यकता को सीमित रखा। वैसे १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध ब्रिटिशो ने अपने फायदे के लिए सड़क निर्माण, रेल लाइन निर्माण व राजकीय भवन निर्माण का काम चलाया तथा राज का परिमापन मुद्रा में होने लगा था, फिर भी अधिकतर- चुकारा एवं वसूली जीन्सों पर ही आधारित थी। जब राज्य में ब्रिटिशो का प्रभाव बढ़ने के कारण तथा महाराणाओं द्वारा वैज्ञानिक सिक्के के प्रचलन में विशेष रुचि नहीं रहने के कारण शान्तिकाल में भी राज्य- कोषागार समृद्ध नहीं रहा, दूसरी तरह भू- उत्पादन द्वारा राज्य- भंडार समृद्ध रहे। अतः हम कह सकते है की आर्थिक रूप से मेवाड़ कभी भी पूर्ण रूप से सक्षम नहीं संपन्न नहीं रहा | क्योकि एक तो सारे महाराणा मुगलों से युधो में अपना अधिकतर समय लगाते रहे | उससे आन्तरिक व्यवस्था पर ध्यान नहीं दे पाए |
thanks
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जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा लिखा
जवाब देंहटाएंthanks
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