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बुधवार, 13 दिसंबर 2017

भाग - 45 मेवाड़ का इतिहास - सन 1509 - 1527 ईस्वी. महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) | Maharana Sangram Singh |



भाग 45 - मेवाड़ का इतिहास

महाराणा सांगा (संग्राम सिंह)  

 

महाराणा संग्राम सिंह का जन्म:-

राणा सांगा Rana sanga (महाराणा संग्राम सिंह) (12 अप्रैल 1484 – 30 जनवरी 1528) (राज 1509-1528) उदयपुर में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे तथा राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। यह वीर, उद्धार, कृतज्ञ, बुद्धिमान और न्यायपरायण शासक थे।

महाराणा सांगा Maharana sanga का जीवन परिचय :-

·         पूरा  नाम :- महाराणा संग्राम सिंह

·         जन्म :- 12 अप्रैल 1482

·         शासन काल :- 1509ई. से 1528ई.

·         जन्म स्थान :- चित्तौड़गढ़

·         पति / पत्नी :- रानी कर्णावती

·         पिता का नाम :- महाराणा रायमल

·         मृत्यु :- 30 जनवरी 1528, कालपी

महाराणा सांगा का इतिहास | History of Maharana sanga :-

उन्होंने अपने पिता महाराणा रायमल की मृत्यु के बाद 1509 ई. में 27 वर्ष की आयु में मेवाड़ के शासक बने। मेवाड़ के महाराणा में वे सबसे अधिक प्रतापी योद्धा थे।

 

 

उत्तराधिकार के लिए संघर्ष :-

रायमल के जीवनकाल में ही सत्ता के लिए पुत्रों के बीच आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गया। कहा जाता है, कि एक बार कुवंर पृथ्वीराज, जयमल और संग्राम सिंह ने अपनी-अपनी जन्मपत्रीयाँ एक ज्योतिषी को दिखाते हैं। उन्हें देखकर उसने कहा कि गृह तो पृथ्वीराज और जयमल के भी अच्छे हैं, परंतु राजयोग संग्राम सिंह के पक्ष में होने के कारण मेवाड़ का स्वामी वही होगा। यह सुनते ही दोनों भाई संग्राम सिंह पर टूट पड़े।

पृथ्वीराज ने हूल मारी जिससे संग्राम सिंह की एक आंख फूट गई थी।

इस समय तो सारंगदेव (रायमल के चाचाजी) ने बीच-बचाव कर किसी तरह उन्हें शांत किया।

किंतु दिनों-दिन कुंवरों में विरोध का भाव बढ़ता ही गया। सारंगदेव ने उन्हें समझाया कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर तुम्हें आपस में संघर्ष नहीं करना चाहिए। इस समय सांगा अपने भाइयों के डर से श्रीनगर(अजमेर) के क्रमचंद पंवार के पास अज्ञात वास बिता रहा था। रायमल ने उसे बुलाकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

 

मुगल आक्रमण :-

भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना 1526 ई. में बाबर द्वारा की गई। उनका जन्म 1483 ई. में फरगना नामक स्थान पर हुआ था। पिता उमर शेख मिर्जा की ओर से वह तैमूर का पांचवा वंशज तथा माता कुतलुगनिगार खानम की ओर से चंगेजखाँ का 14 वाँ वंशज था। इस प्रकार के रंगों में मध्य एशिया के दो क्रुर आक्रांताओ का खून दौड़ रहा था। (चंगेजखाँ  हान वंश का मंगोल था।) मंगोलों ने इस्लाम को अपना लिया और मंगोल मुगल कहलाए।

1494 ई. में अपने पिता की असामयिक मृत्यु के बाद बाबर मात्र 11 वर्ष की आयु में फरगाना के पैतृक राज्य की उत्तराधिकारी बना किंतु परिस्थितियोंवश उसका शासन वहां स्थाई नहीं रह पाया था। अंतत: स्थाई शासन के लिए उसने भारत पर अधिकार करने का निर्णय लिया था। उसके आक्रमण के समय भारत का सबसे शक्तिशाली शासक मेवाड़ का महाराणा सांगा था। जो इतिहास में महाराणा संग्राम सिंह प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है।

गुजरात के सुल्तान के साथ संघर्ष :-

सांगा के समय गुजरात और मेवाड़ के बीच संघर्ष का तत्कालीक कारण ईडर का प्रश्न था। ईडर के राव भाण के 2 पुत्र सूर्यमल और भीम थे। रावभाण की मृत्यु के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठा किंतु उसकी भी 18 माह के बाद मृत्यु हो गई थी। अब सूर्यमल के स्थान पर उसका बेटा रायमल ईडर की गद्दी पर बैठा। रायमल की अल्पआयु होने का लाभ उठाकर उसके चाचा भीम ने गद्दी पर अपना अधिकार कर लिया था। रायमल ने मेवाड़ में शरण ली जहां महाराणा सांगा ने अपनी पुत्री की सगाई उसके साथ कर दी थी।

ईडर पर अधिकार :-

1516 ई. में रायमल ने महाराणा सांगा Maharana sanga की सहायता से भीम के पुत्र भारमल को हटाकर ईडर पर पुन: अधिकार कर लिया था। भारमल को हराकर रायमल का ईडर का शासक बनाए जाने से गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर बहुत अप्रसन्न हुआ था। क्योंकि भीम ने उसी की आज्ञानुसार ईडर पर अधिकार किया था। नाराज सुल्तान मुजफ्फर ने अहमदनगर में जागीरदार निजामुद्दीन को आदेश दिया कि वह रायमल को हराकर भारमल को पुनः ईडर की गद्दी पर बैठा दे।

अन्य स्थानों पर अधिकार :-

सांगा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बैठा दिया और एवं अहमदनगर, बड़नगर, विसलनगर आदि स्थानों को जीतता हुआ चित्तौड़ लौट आया था। महाराणा सांगा के आक्रमण का बदला लेने के लिए सुल्तान मुजफ्फर ने 1520 ई. में मलिक अयाज तथा किवामुल्मुल्क की अध्यक्षता में दो अलग-अलग सेनाएं मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजी। मालवा का सुल्तान महमूद भी इस सेना के साथ आ मिला था किंतु मुस्लिम अफसरों में अनबन के कारण मलिक अयाज आगे नहीं बढ़ सका था और संधि कर उसे वापस लौटना पड़ा था।

खातोली का युद्ध:-

महाराणा सांगा ने सिकंदर लोदी के समय ही दिल्ली के अधीनस्थ इलाकों पर अधिकार करना शुरू कर दिया था। किंतु अपने राज्य की निर्बलता के कारण वह महाराणा सांगा के साथ संघर्ष के लिए तैयार नहीं हो सका। सिकंदर लोदी के उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी ने 1517 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। खातोली(कोटा) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें महाराणा सांगा की विजय हुई। सुल्तान युद्ध के मैदान से भाग निकलने में सफल रहा था, किंतु उसके एक शहजादे को कैद कर लिया जाता है।

इस युद्ध में तलवार से सांगा का बायाँ हाथ कट जाता है और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़े हो गए थे। खातोली की पराजय का बदला लेने के लिए 1518 ई. में इब्राहिम लोदी ने मियां माखन की अध्यक्षता में महाराणा सांगा के विरुद्ध एक बड़ी सेना भेजी। किंतु सांगाने बाड़ी(धौलपुर) नामक स्थान पर लड़े युद्ध में एक बार फिर शाही सेना को पराजित किया था।

मालवा के साथ संबंध :-

मेदिनीराय नामक एक हिंदू सामंत ने मालवा के अपदस्थ सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को पुनः शासक बनाने में सफलता प्राप्त की थी। इस कारण सुल्तान महमूद ने उसे अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया था। सुल्तान के मुस्लिम अमीरों को भी मेदिनीराय की बढ़ती हुई शक्ति से काफी ईर्ष्या थी और उन्होंने सुल्तान को उसके विरुद्ध बहलाने में सफलता प्राप्त कर ली थी मेदिनी राय महाराणा सांगा की शरण में मेवाड़ आ गया, जहां उसे गागरोन व चंदेरी की जागीरें दे दी गई।

सन 1519 ई. में सुल्तान महमूद मेदिनीराय पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ था।

इस बात की खबर लगते ही सांगा भी एक बड़ी सेना के साथ गागरोन पहुंच गए।

यहां हुई लड़ाई में सुल्तान की बुरी तरह से पराजय हुई।

सुल्तान का पुत्र आसफखाँ इस युद्ध में मारा गया तथा वह स्वयं घायल हुआ।

महाराणा सांगा सुल्तान को अपने साथ चित्तौड़ ले गया, जहां उसे 3 माह कैद में रखा था।

महाराणा सांगा Maharana sanga  की कोमलता  :-

एक दिन महाराणा सांगा सुल्तान को एक गुलदस्ता देने लगे। इस पर उसने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं। एक तो अपना हाथ ऊंचा कर अपने से छोटे को देवे या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नजर करें। मैं तो आपका कैदी हूं इसलिए यहां नजर का तो कोई सवाल ही नहीं और भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर महाराणा बहुत प्रसन्न हुए और गुलदस्ते के साथ सुल्तान को मालवा का आधा राज्य सौंप दिया था।

सुल्तान ने अधीनता के चिन्हस्वरूप रत्नजड़ित मुकूट तथा सोने की कमरपट्टी महाराणा सांगा को सौंप दिये। आगे के अच्छे व्यवहार के लिए महाराणा सांगा ने सुल्तान के एक शहजादे को जमानत के तौर पर चित्तौड़ रख लिया था।महाराणा सांगा के इस उदार व्यवहार की मुस्लिम इतिहासकारों ने काफी प्रशंसा की है। किंतु राज्य के लिए यह नीति हानिकारक रही थी।

महाराणा सांगा Maharana sanga और बाबर का युद्ध :-

पानीपत के प्रथम युद्ध(1526 ई.) में इब्राहिम लोदी को पराजित किया।

तथा बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली।

शीघ्र ही बाबर और सांगा के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया था जिसके निम्न कारण है।

1) सांगा पर वचनभंग का आरोप :-

तुर्की भाषा में लिखी अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी में बाबर ने लिखा है कि सांगा ने काबुल में मेरे पास दूत भेजकर दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए कहा था। उसी समय महाराणा सांगा ने स्वयं आगरा पर हमला करने की वायदा किया था, किंतु सांगा अपने वचन पर नहीं रहे। मैने दिल्ली और आगरा पर अधिकार जमा लिया तो भी महाराणा सांगा की तरफ से हिलने का कोई चिन्ह दृष्टिगत नहीं हुआ था। महाराणा सांगा पूर्व में इब्राहिम लोदी को अकेले ही दो बार पराजित कर चुके थे। ऐसे में उसके विरुद्ध काबुल से बाबर को भारत आमंत्रित करने का आरोप तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है।

2) महत्वकांक्षाओं का टकरा :-

बाबर की इब्राहिम लोदी पर विजय के बाद संपूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था।

हिंदूपत्र(हिंदू प्रमुख) सांगा को पराजित किए बिना ऐसा संभव नहीं था।

दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ बने रहना ठीक वैसा ही था। जैसा एक म्यान में दो तलवारें।

3) राजपूत अफगान मैत्री :-

यद्यपि पानीपत के प्रथम युद्ध में अफगान पराजित हो गए थे। किंतु वे बाबर को भारत से बाहर निकालने के लिए प्रयासरत थे। इस कार्य के सांगा को उपयुक्त पात्र समझकर अफ़गानों के नेता हसन खाँ मेवाती और मृतक सुल्तान इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी उसकी शरण में पहुंच गए थे। राजपूत अफगान मोर्चा बाबर के लिए भय का कारण बन गया था। अतः उसने महाराणा सांगा की शक्ति को नष्ट करने का फैसला कर लिया।

4) महाराणा सांगा द्वारा सल्तनत के क्षेत्रों पर अधिकार करना :-

पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी की पराजय से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाकर महाराणा सांगा ने खंडार दुर्ग (रणथम्भौर के पास) व उसके निकटवर्ती 200 गाँवों को अधिकृत कर लिया था जिससे वहां के मुस्लिम परिवारों को पलायन करना पड़ा था। दोनों शासकों ने भावी संघर्ष को देखते हुए अपनी-अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी प्रारंभ कर दी। मुगल सेनाओं ने बयाना, धौलपुर और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया था, जिससे बाबर की शक्ति में वृद्धि हुई।

इधर महाराणा सांगा Maharana sanga  ने निमंत्रण पर अफगान नेता हसन खां मेवाती और महमूद लोदी मारवाड़ का मालदेव, आमेर का पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, वीरमदेव मेड़तिया, बांगड़ का रावल उदयसिंह, सलूंबर का रावल रतनसिंह, चंदेरी का दिखने राय सादड़ी का झाला अज्जा देवरिया का रावत बाघ सिंह और बीकानेर का कुंवर  कल्यानमल सैन्य आ रहे थे।

I) बयाना  :-

फरवरी 1527 ई. में सांगा sanga रणथंबोर से बयाना पहुंच गए थे। जहां इस समय बाबर की तरफ से मेहंदी ख्वाजा दुर्ग रक्षक के रूप में तैनात था बाबर ने बयाना कि रक्षा के लिए मोहम्मद सुल्तान मिर्जा की अध्यक्षता में एक सेना भेजी किंतु राजपूतों ने उसे खदेड़ दिया था। अंततः बयाना पर महाराणा सांगा का अधिकार हो गया। बयाना विजय बाबर के विरुद्ध सांगा की एक महत्वपूर्ण विजय थी। इधर बाबर युद्ध की तैयारियों में जुटा था, किंतु महाराणा सांगा Maharana sanga की तीव्रगति बयाना की लड़ाई और वहां से लौटे हुए शाहमंसूरा किस्मती आदि से राजपूतों की वीरता की प्रशंसा सुनकर चिंतित हो गया था।

इसी समय एक मुस्लिम ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने भविष्यवाणी की कि मंगल का तारा पश्चिम है। इसलिए पूर्व से लड़ने वाले पराजित होंगे। बाबर की सेना की स्थिति पूर्व से  ही थी। चारों तरफ निराशा का वातावरण देख बाबर ने अपने सैनिकों को उत्साहित करने के लिए कभी शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और शराब पीने की कीमती सुराहियाँ व प्याले तुड़वाकर गरीबों में बांट दिये।

II) बाबर की अपने सैनिकों के प्रति क्रूरता पूर्ण भावना :-

सैनिकों के मजहबी भावो को उत्तेजित करने के लिए उसने कहा, सरदारों ओर सिपाहियों प्रत्येक मनुष्य जो संसार में आता है, अवश्य मरता है जब हम चले जाएंगे तब एक खुदा ही बाकी रहेगा। जो कोई जीवन का भोग करने बैठेगा उसको अवश्य मरना ही होगा जो इस संसाररूपी क्षराय में आता है उसे एक दिन यहां से विदा भी होना पड़ता है। इसलिए बदनाम होकर जीने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना अच्छा है। मैं भी यही चाहता हूं कि कीर्ति के साथ मृत्यु हो तो अच्छा होगा। शरीर तो नाशवान है। खुदा ने हम पर बड़ी कृपा की है कि इस लड़ाई में हम मरेंगे तो शहीद होंगे और जीतेंगे तो गाजी कहलाएंगे।

इसलिए सबको कुरान हाथ में लेकर कसम खानी चाहिए कि प्राण रहते कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने का विचार न करें। इसके साथ ही बाबर ने रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की बात भी चलाई। महाराणा सांगा Maharana sanga ने इस प्रस्ताव पर अपने सरदारों से बात की किंतु सरदारों को सलहदी की मध्यस्थता पसंद नहीं आयी थी। इसलिए उन्होंने अपनी सेना की प्रबलता और बाबर की निर्बलता प्रकट कर संधि की बात नहीं बनने दी थी। संधि वार्ता का लाभ उठाते हुए बाबर तेजी से अपनी तैयारी करता रहा और खानवा के मैदान में आ पहुंचा था।

III) वीर विनोदके अनुसार :-

कविराज श्याम दास कृत वीर विनोदके अनुसार 16 मार्च 1527 ईस्वी को सुबह खानवा(भरतपुर) के मैदान में युद्ध प्रारंभ हुआ। पहली मुठभेड़ में बाजी राजपूतों के हाथ लगी, किंतु अचानक महाराणा सांगा के सिर पर एक तीर लगने के कारण उसे युद्ध भूमि से हटना पड़ा। युद्ध संचालन के लिए अब सरदारों ने सलूंबर के रावत चुंडावत से सैन्य संचालन के लिए प्रार्थना की थी। रतन सिंह ने यह कहते हुए उक्त प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि मेरे पूर्वज मेवाड़ राज्य छोड़ चुके हैं।

इसलिए मैं एक क्षण के लिए भी राज्य चिन्ह धारण नहीं कर सकता। परंतु जो कोई राज्य छत्र धारण करेगा, उसकी पूर्ण रूप से सहायता करूंगा और प्राण रहने तक शत्रु से लडूंगा। इसके झाला अज्जा को हाथी पर बिठाकर युद्ध जारी रखा गया था। राजपूतों ने अंतिम दम तक लड़ने का निश्चय किया था। किंतु बाबर की सेना के सामने उनकी एक न चली और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। विजय के बाद बाबर ने गाजी की पदवी धारण की और विजय चिन्ह के रूप में राजपूत सैनिकों के सिरों की एक मीनार बनाई गई थी।

महाराणा सांगा की पराजय के कारण :-

·         इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार सांगा की पराजय का मुख्य कारण बयाना विजय के तुरंत बाद ही युद्ध ने करके बाबर को तैयारी करने का पूर्ण समय देना था। लंबे समय तक युद्ध को स्थगित रखना महाराणा सांगा Maharana sanga की बहुत बड़ी भूल सिद्ध हुई। महाराणा सांगा के विभिन्न सरदार देश प्रेम के भाव से इस युद्ध में शामिल नहीं हो रहे थे। सभी अलग-अलग स्वार्थ थे। यहाँ तक कि कईयों में तो परस्पर शत्रुता भी थी। संधि वार्ताओं के कारण कई दिन शांत बैठे रहने से उनमें युद्ध के प्रति जोश व उत्साह नहीं रहा जो युद्ध के लिए रवाना होते समय था।

·         राजपूत सेनिक परंपरागत हत्यारों से युद्ध लड़ रहे थे। वह तीर-कमान, भालों व तलवारों से बाबर की तोपो के गोलो की मुकाबला नहीं कर सकते थे।

·         इससे शत्रु को उस पर ठीक निशाना लगाकर घायल करने का मौका मिला। उसके युद्धभूमि से बाहर जाने से सेना का मनोबल कमजोर हुआ था।

·         राजपूत सेना में एकता और तालमेल का अभाव था क्योंकि संपूर्ण सेना अलग-अलग सरदारों के नेतृत्व में एकत्रित हुई थी।

·         अपनी गतिशीलता के कारण राजपूतों की हस्ति सेना पर बाबर की अरब सेना भारी पड़ी थी। बाबर की तोपों के गोलो से भयभीत हाथियों ने पीछे लौटते समय अपनी ही सेना को रौंदकर नुकसान पहुंचाया था।

खानवा के युद्ध के परिणाम :-

1.     भारत में राजपूतों की सर्वच्चता का अंत हो गया। राजपूतों का यह प्रताप सूर्य जो भारत के गगन के उच्च स्थान पर पहुंचकर लोगों में चकाचौंध उत्पन्न कर रहा था अब अस्तांचल की ओर खिसकने लगा था।

2.     मेवाड़ की प्रतिष्ठा और शक्ति के कारण निर्मित राजपूत संगठन इस पराजय के साथ ही समाप्त हो गया था।

3.     भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया और बाबर स्थिर रूप से भारत का बादशाह बन गया था।

अंतिम दिन :-

खानवा के युद्ध के बाद मूर्छित महाराणा सांगा को बसवा ले जाया गया था। होश में आने पर सारा वृत्तांत जानकर महाराणा सांगा काफी दुखी हुए और युद्ध स्थल से इतनी दूर लाने के लिए अपने सरदारों को बुरा भला कहा था। बाबर ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए जब महाराणा सांगा चंदेरी जा रहा था तब रास्ते में इरिच नामक स्थान पर उसके युद्ध विरोधी सरदारों ने जहर दे दिया था।  जहर का प्रभाव होने पर कालपी नामक स्थान पर 30 जनवरी 1528 ई. को मात्र 60 वर्ष की आयु में महाराणा सांगा Maharana sanga का देहांत हो गया।

अमर काव्य वंशावली के अनुसार महाराणा सांगा का अंतिम संस्कार मांडलगढ़ में किया गया था।

महाराणा सांगा Maharana sanga का मूल्यांकन :-

महाराणा सांगा वीर, उद्धार, कृतज्ञ, बुद्धिमान और न्यायपरायण शासक थे। अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और राज्य वापस लौटा देने का कार्य महाराणा सांगा जैसा वीर पुरुष ही कर सकता है। प्रारंभ में ही विपत्तियों में पलने के कारण वह एक साहसी वीर योद्धा बन गए थे। अपने भाई पृथ्वीराज के साथ झगड़े में उनकी एक आंख फूट गई।  इब्राहिम लोदी के साथ हुए खातोली का युद्ध में उसका हाथ कट गया और एक पैर से वह लंगड़े हो गए थे।

मृत्यु के समय तक उनके शरीर पर तलवारों के भालों के कम से कम 80 निशान लगे हुए थे।

जो उन्हें एक सैनिक का भग्नावशेष सिद्ध कर रहे थे।

शायद ही उनके शरीर का कोई भी अंग ऐसा हो जिस पर चिन्ह न हो।

अपने पुरुषार्थ द्वारा सांगा ने मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुंचाया था।

अपने समय का वह सबसे बड़े हिंदू नरेश थे, जिसके आगे बड़े से बड़े शासक सिर झुकाते थे।

जोधपुर और आमेर के शासक भी उनका सम्मान करते थे।

अन्य सामंत :-

ग्वालियर, अजमेर, सीकरी, रायसेन, कालपी, चंदेरी, बूँदी, गागरोन, रामपुरा और आबू के राजा उनके सामंत थे।

यह भारत के अंतिम नरेश है जिनके नेतृत्व में राजपूत नरेश विदेशियों को भारत से निकालने के लिए इकट्ठे हुए थे। बाबर ने उनकी प्रशंसा में लिखा है कि राणा सांगा अपनी बहादुरी और तलवार के बल पर बहुत गर्व हो गया है। आपसी वैमनस्य के लिए प्रसिद्ध राजपूत शासकों को एक झंडे के नीचे लाना महाराणा सांगा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

मालवा दिल्ली और गुजरात का कोई अकेला सुल्तान उसे हराने में असमर्थ था।

उसके राज्य की वार्षिक आय 10 करोड़ थी उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे।

उसके साथ सात राजा 9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे।

धर्म के प्रति आस्था :-

महाराणा सांगा धर्म और राजनीति के बड़े मर्मज्ञ थे। अंगहीन होने पर एक बार उन्होंने अपने सरदारों के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि जिस प्रकार एक टूटी हुई मूर्ति पूजने योग्य नहीं रहती, उसी प्रकार मेरी आंख, भूजा और पैर अयोग्य होने का कारण मैं सिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं हूं। इस स्थान पर जिसे उचित समझें बैठावें। राणा ने इस विनीत व्यवहार से सरदार बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि रण क्षेत्र में अंग भंग होने से राजा का गौरव घटता नहीं अपितु बढ़ता है। महमूद खिलजी को गिरफ्तार करने की खुशी में सांगा ने चारण हरिदास को चित्तौड़ का संपूर्ण राज्य दे दिया था।

किंतु हरिदास ने संपूर्ण राज्य ने लेकर 12 गांव में ही अपनी खुशी प्रकट की।

महाराणा सांगा Maharana sanga का गलत निर्णय :-

एक बड़ा राज्य स्थिर करने वाला होने के बावजूद भी सांगा को राजनीति से अधिक निपुण नहीं कहा जा सकता है। अपने शत्रु को पकड़ कर छोड़ देना उदारता की दृष्टि भले ही उत्तम कार्य हो परंतु राजनीति के विचार से बुरा ही था। इसी तरह गुजरात के सुल्तान को हराकर उसके इलाकों पर अधिकार न करना भी उसकी भूल थी। अपने छोटे लड़कों को रणथंभौर जैसी बड़ी जागीर देकर उन्होंने भविष्य के लिए कांटा बो दिया। महाराणा सांगा की विशेष प्रीतिपात्रा होने के कारण हाडी रानी कर्मावती ने अपने दोनों पुत्रों विक्रमादित्य और महाराणा उदयसिंह के लिए रणथंभौर की जागीर लेकर अपने भाई सूरजमल हाडा को उनका संरक्षण नियुक्त करवा लिया था।

 

राणा सांगा ने कौन कौन से युद्ध लड़े?

महाराणा क्संग्रामसिंह के युद्ध

·         बाडीघाटी का युद्ध 1517 (धोलपुर)

·         खातोली का युद्ध 1518 (बूंदी)

·         बयाना का युद्ध 1527 (भरतपुर)

·         खानवा का युद्ध 1527 (भरतपुर)

बाबर और राणा सांगा का युद्ध कब हुआ?

1527ई. में।

महाराणा सांगा के पिता कौन थे?

राणा रायमल।

महाराणा सांगा का राज्याभिषेक कहाँ हुआ?

चितौड़ में।

महाराणा सांगा को एक सैनिक का भग्नावशेष क्यों कहा गया है?

क्योकि यह युद्ध में सनिको की तरह युद्ध करते थे।

राणा सांगा की मृत्यु कब हुई?

30 जनवरी 1528 (बसवा, दोसा)

महाराणा सांगा का राज्याभिषेक कब हुआ?

1509 ई. में चितौड़।

खानवा युद्ध का क्या परिणाम हुआ?

महाराणा सांगा की विजय हुई।

पानीपत का प्रथम युद्ध कब और कहां हुआ था?

1191 पानीपत (हरियाणा)

महाराणा सांगा ने कितने युद्ध लड़े?

महाराणा सांगा ने प्रमुख चार युद्ध लड़े

·         बाडीघाटी का युद्ध 1517 (धोलपुर)

·         खातोली का युद्ध 1518 (बूंदी)

·         बयाना का युद्ध 1527 (भरतपुर)

·         खानवा का युद्ध 1527 (भरतपुर)

खानवा के युद्ध में महाराणा संग्राम सिंह की सेना में कौन शामिल था?

·         हसन खा मेवाती।

·         मेड़ता के रतन सिंह।

·         जोधपुर के मालदेव राठोड़।

·         ईडर के रायमल राठोड़।

·         राणा अजजा आदि।


 महाराणा साँगा का राज्यकाल(1509 - 1527 ईस्वी. )

महाराणा साँगा के युद्ध

मृत्यु














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