ऐसे ही दो प्रसंग पहले भी आये थे । महाराणा लाखा के देहावसान के पश्चात राज्य की बागडोर मोकल के छोटे
होने कारण 'चूण्डा ' ने संभाली थी । जो वास्तव में मोकल से बड़े थे और लाखा के ज्येष्ठ पुत्र भी थे किन्तु विशेष कारणों से उन्होंने मेवाड़ का उत्तराधिकार त्यागा था ,और तभी से ही चूण्डा को तथा उसके वंशजो को यह विशेष अधिकार था की राज्य प्रबंध में जब भी संकट की गड़ी आ जाय तो निर्णय का पूर्ण अधिकार 'चूण्डा ' के वंशजो को ,एवं अन्य सामंतो की सलाह से होगा । ऐसा ही एक प्रसंग और था जब सामंतो के मत को शिरोधार्य कर राणा सांगा गद्दी पर बैठे । उनके पहले मेवाड़ की यह प्रथा यह प्रथा थी की मेवाड़ गद्दी पर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बैठेगा जिसका अंग भंग हो राणा सांगा के शरीर पर अस्सी घाव थे और वे युद्ध में एक आँख ,हाथ और टांग गवा चुके थे । नियमानुसार तो वे गद्दी पर बैठ नहीं सकते थे किन्तु सामंतो के आग्रह और आदेश का पालन कर राणा सांगा को राज्य का भार सम्भालना पड़ा ।
आज भी उसी प्रकार का एक संकट का प्रसंग उपस्थित था । इस प्रसंग पर अक्षयराज सोनगरा सबसे पहले बोले । उन्होंने कृष्णसिंह और रावत सांगा की और इसआरा करके कहा "आप चूण्डा के वंशज है राज्य के उत्तराधिकारी का निर्णय तो आपकी राय से होना चाहिये । जिस दिन चूण्डा ने अपने उत्तराधिकार को मेवाड़ के महाराणा को समर्पित किया था उस दिन से राज्य के स्वामी महाराणा तो राज्य प्रबंध के अधिकारी चूण्डा और उनके वंसज ने जाते है । आज लोगो से सलाह लिए बिना ही यह मेवाड़ की उस परम आदरणीय परंपरा को त्याग कर किस अनर्थ को बुलाने कुप्रयास किया जा रहा है । स्व महाराणा भी ऐसी कोई इच्छा आज तक किसी के समक्ष्य व्यक्त नहीं की थी ।"
अक्षय राज बोलते जा रहे थे । "आज मेवाड़ पर संकट है । अकबर जैसा शत्रु योजनाबद्ध हो मेवाड़ को हड़पने का प्रयत्न कर रहा है । पवित्र चित्तोड छूट गया, मेवाड़ उजाड़ने के राह पर है और यह घर का ही बखेडा हो गया तो मेवाड़ पतन में क्या कोई सन्देह रहेगा ? जिस मातृभूमी की सुरक्षा के लिए अनेको वीरो ने जीवन की आहुतियाँ दी ।बाप्पा रावल से लेकर आज तक के सभी महाराणाओं ने सुख वैभव को एक और रख कर संघर्ष करते हुए अपनी मातृभूमि को ही सुरक्षित नहीं किया वरन आतताईयो को भारत की सीमा से बाहर किया । यही कारण है कि तब से लेकर अब तक मेवाड़ संपूर्ण भारत का केंद्र बना हुआ है । आज अकबर की आँखों में यह राज्य काटे की तरह चूभ रहा है । वह किसी भी प्रकार इस राज्य को समाप्त करना चाहता है ,क्या हम उनको ऐसा करने में सहयोग नहीं कर रहे है ?"
अक्षयराज की आँखे क्रोधानगी से लाल हो रही थी तथा गर्म और दीर्घ निस्वाष निकल रहे थे । उधर प्रताप संकट में थे । कई विचार उनके अंतर्मन में उठ रहे थे । विदेशियो के आक्रमण का तो संकट था ही साथ ही साथ यह गृह क्लेश का संकट भी मुह फाड़े खड़े था , मन में विचार आ रहा था की राज्य का अधिकारी रहु या न रहु में अपनी मातृभूमि की रक्षा करता रहूँगा । उसके लिए गद्दी पर बैठना ही तो आवश्य्ाक नहीं है । मन में यह विचार भी आया की यदि गृह कलह के कारन अपनी ही भूमि पर मेरे हाथो अपने ही बंधुओ का खून गिरे , यह घोर अनर्थ होगा । खड़ग सत्रुओ पर चलनी चाहिए वह अकारण ही अपने बंधुओ के मृत्यु कारण बनेगा और यह भी मेरे राज्य पर बैठने और न बैठने के विवाद के कारण ? नहीं में ऐसा दूंगा । ऐसे संकट के समय मेरे द्वारा फुट के बीज यदि इस राज्य पर बैठने के तुच्छ कारन से बोये जाय तो मेरे नहीं प्रत्येक मेवाड़ के वीर के लिए कलंक की बात है । कही लोकेशन इच्छा तो जगाई नहीं जा रही है ? में तो उस आदर्श राम पुरुष का वंशज हु ? जिन्होंने घोषणा की थी की प्रजा की आराधना के लिए यदि स्वं से अधिक अपनी प्रियतमा का भी त्याग करना पड़े तो मुझे छोडने में किसी प्रकार की व्यथा नहीं होगी "
"आराधनाय लोकस्य मुंण चतो नास्ति में व्यथाम " तो क्या आज से अपने लोक आराधना के उस यघ्य च्युत तो नहीं किया जा रहा हु ? राज्य पर बैठकर ही तो यह कार्य नहीं किया जा सकता है ?मातृभूमि के शाश्वतिकटा का भाव उनके मन में बार बार उठ रहा । मन बार बार उसे यह स्मरण दिला रहा था की ।
"तेरा बैभव अमर रहे माँ ,
हम दिन चार रहे न रहे "
फिर ये ऐषणा क्यों जगाई जा रही है? इस प्रकार के कई अंतर्द्वन्द अक्षयराज के कथन के पश्चात प्रताप के मन में उठ रहे थे ? प्रताप के मन में उठ रहे विचारों को ताड कर तथा सभी सरदारों की प्रताप को उत्तराधिकारी बनाने के प्रबल समर्थन के प्रवाह को देख्रकर रावत कृषणसिंह ने यह घोषणा कि की " पाटवी के हक़दार ज्येष्ठ और श्रेष्ठ होने के कारन बहादुर प्रतापसिंह ही है । फिर उन्हें किस कारण उत्तराधिकार से वंचित किया जा रहा है ?" यह प्रश्न नहीं ,स्वयं में उतर था
सभी सरदार सामन्त उमराव इस घोषणा को सुनकर प्रसन्न हो उस स्थान पर पहुंचे जहां की जगमाल का राज्याभिषेक हो रहा था । सलूम्बर नरेश कृष्णसिंह ने निर्भीकता से उच्च स्वर में जगमाल से कहा "राजकुमार मेवाड़ का राज्य सिहासन आपके बैठने का स्थान नहीं है उस पर बैठने के योग्य तो आपका ज्येष्ठ भ्राता प्रतापसिंह ही है । आपका स्थान राजगद्दी पर नहीं , उसके सामने है " इस घोषणा के साथ ही जगमाल का हाथ पकड़ कर सरदारों ने उसे राजगद्दी से उतार दिया और वीरवर प्रतापसिंह को मेवाड़ के पवित्र राज सिहासन पर बिठा दिया । सभी ने उनका महाराणा के रूप में अभिनन्दन किया।
जगमाल को जब गद्दी से उतारा तो उसने बदला लेने की ठानी ।उस मे इतना साहस तो नही था की अकेला उस विपुल विरोध का प्रतिकार कर सके अतः वह मेवाड़ छोड़कर मुगलो के साथ जा मिला । अकबर तो ऐसे क्षणों को सदा से ही प्रोतसाहन देता था । उसने सिरोही के राज्य का कुछ भाग जगमाल को दे दिया । जगमाल ने मेवाड़ विछिन्न करने के प्रयास किये , किन्तु महाराणा प्रताप के व्यक्तित्य्व के आगे उनकी एक न चली । आगे चलकर उसी क्षेत्र में जगमाल की मृत्यु भी हो गयी ।मेवाड़ की राजगद्दी पर प्रताप का बैठना यह केवल मेवाड़ का ही सौभाग्य नही था अपितु भारत के लिए भी गौरव की बात थी । अच्छा हुआ की जगमाल को सिहासन से उतरआ गया नहीं तो तुच्छ स्वार्थ के लिए सारे मेवाड़ को ही वह मुगलो हाथो सौंप देता और उस समय मेवाड़ का ही नहीं भारत का इतिहास ही कुछ और होता । उस कठिन परिस्थिति में जैसा धीर वीर साशक चाहिए था मेवाड़ को वैसा ही अधिपति प्राप्तय हो गया । प्रताप को गद्दी पर बैठने के पश्चात सामंतो को किसी प्रकार का विरोध नहीं करना पड़ा । सभी प्रताप की श्रेष्ठता , योग्यता और गुणों के बारे में आशवस्त्य थे । वे राज्य का उचित ही नहीं उपयुक्तय अधिकारी मानते थे । उस समय महाराणा प्रताप की आयु ३१ वर्ष ही थीं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें