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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

भाग २ :- महाराणा प्रताप का राजतिलक

महाराणा प्रताप
भाग २
विधि पुर्वक  महाराणा प्रताप का राजतिलक कुम्भलगढ़ में हुआ । पर बैठते ही महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के अस्त व्यस्त हुए  हिस्सों को पुनः गठित  करने के प्रयास  किये । किन्तु उन्हें अकबर ने एक वर्ष भी से शांति से मेवाड़ को सुसंघठित करने का समय नहीं दिया । प्रताप भी  अकबर की  निति समज  गए । राजतिलक से लगभग ५ वर्ष पूर्व अकबर ने जब चित्तोड  पर आक्रमण किया था ,उस समय प्रताप की लगभग आयु २६ वर्ष की थी । अकबर के  आक्रमण के समाचार जब चित्तोड़ पहुंचे  थे उस समय सभी सामंतो ने तथा प्रताप ने भी यह  सलाह दी थी की युद्ध  की दृस्टि से चित्तोड़ अधिक सुरक्षित  नहीं है ।न  ही अपने पास उतनी सैन्य  शक्ति  है की अकबर से युद्ध मैदानी प्रदेश  में लड़  सके  और इसलिए ऐसे सुरक्षित स्थान पर राजधानी बणई  जाए  की सुविधापूर्वक शत्रु प्रवेश न कर सके । इसलिए आयड़  के पास सुरम्य समतल मैदानी क्षैत्र को सुरक्षित समज  कर चुना गया । आगे चलकर यही स्थान उदयपुर के नाम से जाना जाने लगा । यह स्थान उस समय देखा गया था जब  प्रताप के प्रथम पुत्र अमरसिंह  के जन्म के उपलक्ष्य में उत्सव के उल्लास में भगवान एकलिंग जी की विशेष यात्रा की गयी थी । इस चयन के समय भी प्रताप थे और सभी सामंतो ने भी सुरक्षितता को देखकर स्वीकृति दे दी । चित्तोड़  को छोड़ने से पूर्व मुख्य  चर्चा में प्रताप ने यह सुजाव दिया की महाराणा साहब तो भले ही चले जाय में राजधानी की सुरक्षा  यही हु किन्तु यह बात अन्य लोगो  आयी । चित्तोड़  सभी को  छोड़ना  पड़ा ये सरे लक्ष्य प्रताप  समक्ष तय हुए थे और इसके लिए प्रमुख कारण  अकबर ही था । यह प्रताप जानते थे ।
        चित्तोड़  पर  आक्रमण हुआ । जयमल और पत्ता दोनों ही वीरता पूर्वक लड़ते रहे अंत में वीरगति को प्राप्त हुए । उसके पश्चात  चित्तोड़  की जनता पर जो अत्याचार किये गए उसका  वर्णन   अवर्णनीय  है । उस निरीह  जनता, अबलाओ  और बालको पर बर्बर व्यव्हार किया और उन्हें मोत के  घाट उतरा गया । चित्तोड़  के तीस  हजार नागरिकों के अकारण  अमानवीय संहार ने प्रताप और उसकी प्रजा को इतना कटु बन दिया की मुगलो के साथ समजोते   कोई सोच भी नहीं सकता था फिर प्रताप का चरित्र शौर्य और देशाभिमान से भरा  हुआ था उसके दासता और स्वांधीनता  के  बीच  चुनाव का कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता  था । उधर अकबर अपने साम्राज्य  के विस्तार  की योजना बन रहा था । मेवाड़ उस साम्राज्य विस्तार के मार्ग में बाधा  बन रहा था । अकबर भी यह  अछी तरह से समजता था की प्रताप को मिटाया जा सकता है  जुकाया  नहीं जा सकता और नहीं मिलाया जा सकता । और प्रताप को मिलाये बिना या मिटाये बिना वह अपने संपूर्ण साम्राज्य के स्वप्न को साकार  भी  नहीं कर सकता। अकबर की मत्वकांशा की कोई सीमा नहीं  थी । प्रताप में स्वाभिमान और स्वाधीनता की रक्षा के लिए दृढ संकल्प की कोई सीमा नहीं थी । अकबर प्रताप के स्वाभिमान को तोडना चाहता था । और प्रताप अकबर की  मत्वकांशा को तोडना   चाहते  थे । यही  कारन  थे  लम्बे समय तक दोनों के बिच संघर्ष चलता रहा । यदि महाराणा उदयसिंह का देहवसान न हुआ होता तो अकबर मेवाड़ के इन क्षेत्र पर भी उपयुक्त समय समझकर आक्रमन कर सकता था । किन्तु प्रताप के राजगद्दी  पर बैठने के कारन उसने आक्रमण करना उचित नहीं समजा । नए महाराणा के स्वाभिमान चरित्र की कीर्ति अकबर के पास पहुंच गयी थी । इस कारन उसने समजाते  के प्रयास करने प्रारम्भ कर दिए ।
सन  १५७२( 1572 ) के  फरवरी माह में प्रताप के पास अकबर ने वाक पटु , चतुर और विश्वस्त दरबारी जलाल खा कोरची के साथ महाराणा को मित्रता का सन्देश भेजा । किन्तु वह वार्ता असफल रही । फिर अकबर ने इस कार्य के लिए मानसिंह को चुना । मानसिंह उस समय गुजरात में थे । सन  1573 जून मास में दोनों का मिलान उड़ाई सागर की पाल पर हुआ । इसी प्रकार दो और संधि प्रस्ताव प्रताप के पास भेजे गए एके तो उसी वर्ष अक्टुम्बर मास में भगवानदास (आमेर (वर्तमान जयपुर) के महाराजा  )  के साथ और दूसरा दिसंबर में नवरत्नों के साथ टोडरमल जो चतुर रजनितघय  तथा  वित्त  विसेसज्ञा माने  जाते   थे के साथ किन्तु यह वार्ता  भी असफल रही ।कभी कभी प्रताप पर लांछन लगाया जाता है की उन्होंने मानसिंह का अपमान किया था ।  लकिन कथन में कोई सच्चाई नहीं है । प्रताप ने तो जलाल खां  कोरची का भी अपमान नहीं किया था जो की मुशलमान था । तो अपने सजातीय बंधू का अपमान कैसे कर सकते थे । और अपमान किया होता तो बाद में उन्ही के पिता श्री भगवानदास और टोडरमल को क्यों भेज जाता ? वास्तव में प्रताप  अपने कुल की तथा भारत की मर्यादा जानते थे । किसी  राजदूत का अपमान अपने कुल की मर्यादा पपरम्परा के अनुसार नहीं था । और इसी कारन यह मिथ्या आरोप लगन की उन्होंने मानसिंह का अपमान किया उनके साथ भोजन नहीं किया  यह यह प्रताप के चरित्र को जबरदस्ती गिराने की कोशिश है ।  एक और  प्रश्न की "फिर उन दोनों के बिच समजोता क्यों नहीं हुआ ? " उतर स्पस्ट है समजोता किस आधार पर होता । अकबर तो  अपने राज्य में मिलाना चाहता था । हो सकता हो वह मेवाड़ वंश के स्वाभिमान को देख कर विवाह की  करता किन्तु यह तो वह पसंद  नहीं करता की अपने राज्य में एक और स्वतंत्र  राज्य हो । प्रताप ऎसी शर्ते स्वीकार नहीं कर सकते थे जो उनके कुल के और देश  परंपरा के अनुकूल न हो । वे यह भी जानते थे की समजोते के असफल होने के क्या परिणाम होंगे । अगर कोई ऐसा रास्ता मिलता जिसमे की संम्मान  भी बन रहे और रक्तपात से भी बच जा सकता हो तो शायद स्वीकार्य होता । जब अकबर ने प्रताप के अनुकूल शर्ते नहीं की तब ही समजोते का सिलसिला समाप्त हुआ और युद्ध अपरिहार्य हो गया । प्रताप अगर चाहते तो अकबर के साथ संधि कर के आराम और सुख वैभव का जीवन व्यतीत कर सकते थे । लकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । इसलिए वो महान  राजा हुए  । उन्होंने अपने पूरा जीवन देश के लिए  लड़ने में बिता दिया इसलिए  में भी आज उनकी महत्ता आपको बता रहा हु क्यों की कुछ लोग और सिरियल वाले अकबर को महान  बता रहे है और महाराणा को नहीं खेरछोड़ो । वो जीती जगती प्रेरणा बन गए । इसके कारन उनके साथियो ने यहाँ तक की जिनको आज  वनवासी ,आदिवासी कहकर उपेक्षा करते है उनको भी हसते हसते प्राणों  की बलि चढाने की प्रेरणा  दी ।

सम्पुर्ण  मेवाड़ को उन्होंने संगठित किया चाहे वह नगरवासी हो या ग्रामवासी वह गावो में रहता हो या कंदराओं में , प्रताप का साथी बना । यही नहीं आसपास के अनेक राज्यों को उन्होंने साथ लिया ताकि आगे वे भयंकर युद्ध में साथ दे सके । उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पस्ट  है की उस समय परिस्थितियों के अनुकूल हिी महाराणा ने अपना व्यहार किया । वे एक कुशल राजनितिक ही नहीं अपितु कुशल संगठक भी थे । जिस प्रकार चन्द्रगुप्त मोर्य के मार्गदर्शक  चाणक्य थे ,अर्जुन के कृष्ण ,गुप्तवंश के संथापक चन्द्रगुप्त और समुंद्रगुप्त को हरिषेण  मार्गदर्शन प्राप्त था ,पुष्पमित्र को पंतजलि ने योजनानुसार विकक्षित किया ,मेवाड़ के ही बाप्पा रावल को हरित मुनि ने प्रेरणा दी उसी प्रकार प्रताप का भी कोई मार्गदर्शक था इतिहास इस पर  मोन   है ।
प्रताप अपनी अंतः प्रेरणा से इतने बड़े कार्य को कर सके और सफलतापूर्वक कर सके यह उनकी महानता का परिचायक है ।

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