समझोते असफल हुए | पूरा अक वर्ष इस प्रकार की कुट नीतिज्ञ बातो में ही बीत गया परुन्तु इस प्रकार बिना परीणाम के | यही बात युध्य की संभावना को बढाती जा रही थी , अकबर अब स्पष्ट रूप से समझ गया की प्रताप को किसी भी कीमत पर ख़रीदा नहीं जा सकता | प्रताप वह व्यक्ति नहीं है जो प्रलोभन के आगे गुटने टेक दे| मेवाड़ को लेने का अर्थ है सर के बदले सिर अर्थात युध |
प्रताप ने भी वाही रास्ता चुना जो समर भूमि की और जाने वाला था |
चित्तोड़ विजय के पश्चात से ही अकबर इस प्रकार की योजना बना रहा था की मेवाड़ के
विभिन्न भागो में मुसलमानों का प्रभाव बढ़े | उन्होंने उस क्षेत्र में मुसलमान सेनिक
तैनात किये | चित्तोड़ को मुग़ल सरगना( जिला ) घोषित किया | कर वसुली के लिए अधिकारी
भी नियुक्त किये | महाराणा का साथ छोड़ कर
आये हुए अनेको लोगो को भी अकबर ने जागीरे
दी |
प्रताप ने भी वाही रास्ता चुना जो समर भूमि की और
जाने वाला था | चित्तोड़ विजय के पश्चात से ही अकबर इस प्रकार की योजना बना रहा था
की मेवाड़ के विभिन्न भागो में मुसलमानों का प्रभाव बढ़े | उन्होंने उस क्षेत्र में
मुसलमान सेनिक तैनात किये | चित्तोड़ को मुग़ल सरगना( जिला ) घोषित किया | कर वसुली
के लिए अधिकारी भी नियुक्त किये | महाराणा का साथ छोड़ कर आये हुए अनेको लोगो को भी अकबर ने जागीरे दी |
अकबर जनता था की प्रताप से युध जितना कोई बाये
हाथ का खेल नहीं है | इस कारन समझोता
वार्ता के परिणाम की सम्भावना को सामने रखते हुए भी उन्होंने इस प्रकार की योजना
बनाई कि मेवाड़ चारो और से घेरे में आ जाये जिससे मेवाड़ को जितना सरल हो जाये |
मानसिंह जब महाराणा से मिलने उदैपुर आया तो अहमदाबाद से डूंगरपुर के रस्ते होकर
आया | उसके साथ सेना भी थी | डूंगरपुर के महारावल आसकरण से मानसिंह ने अकबर की
अधीनता के लिए कहा व उनके मना करने पर जमकर युध हुआ | डूंगरपुर जित लिया गया था |
उधर रणथम्बोर और बूंदी को भी अकबर ने अपने अधिकार में डकार लिया था | अकबर ने यह कारवाई
इस लिए की कि मेवाड़ को विजय प्राप्त करने
के पहले मेवाड़ के मित्रो को तोडा जाय | यह बात सोचकर ही जोधपुर और गुजरात को जितने
के प्रयत्न किये गए | यह इसलिए भी किया गया की गुजरात पहुचने में कोई बाधा न पडे |
जोधपुर और इडर के राजा मेवाड़ के परम मित्र और
मुगलों के शत्रु थे | गुजरात के मार्ग को रोकने, काटने का भय भी इसलिए
उनसे बना रहता था इस कारन दोनों क्षेत्रों को भी अपने
अधिकार में अकबर ने कर लिया तथा काफी बड़ी सेनाये भी रखी | इस प्रकार मेवाड़ को चारो
और से , कुछ उतर पश्चिम सीमावर्ती क्षेत्र को छोड़कर अकबर ने घेर लिया था | इतना सारा प्रबंध करने पर भी जिस लक्ष्य
को लेकर अकबर ने प्रत्यन किये की प्रताप को मिटाऊंगा या झुकाऊंगा , वह दोनों में
असफल रहा | अकबर की असफलता ही वास्तव में प्रताप की सफलता और कूटनीति कही जा सकती
है |
इधर प्रताप ने अपनी तरफ के मेवाड़ में अपनी स्थिति
सुद्रढ़ करने का प्रयास प्रारंभ किया | इस दृष्टी से सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने
यह की की मेवाड़ के पर्वतीय प्रदेश के भीलो को जंगल से निकालकर रक्षा पंक्ति में
खड़ा कर दिया | इस सम्पूर्ण प्रदेश के भीलो की आबादी अधिक थी | सम्पूर्ण क्षेत्र का चप्पा चप्पा इनका छाना
हुआ था आर्थिक दृष्टी से भील संपन नहीं थे
उनकी पहले भी वाही दशा थी जो आज है परुन्तु उस समय जबकि आवागमन के साधन कम
थे मार्ग कम थे सम्पूर्ण प्रदेश के भीलो
को मेवाड़ की स्वाधीनता की रक्षा के लिए खड़ा करना साधारण बात नहीं थी | प्रताप इस बात को भलीभांति कर सके यह उनकी दूरदर्शिता और
सुझबुझ का ही प्रमाण था | संपूर्ण प्रदेश पर्वतीय था | संघर्ष इन् पहाडियों में ही
होने वाला था इन् पर्वतीय भागो को वे भील अछी तरह से जानते थे | मेवाड़ का राज्य भी
आर्थिक दृष्टी से संपन्न नहीं था | इन् सब बातो को देखते हुए भीलो का मिलन अपना
विशेष महत्व रखता है | भीलो की भावनाओ को जागृत कर देशभक्ति का भाव जगा उनके
हर्द्य में प्रस्फुटित कर मात्रभूमि के प्रति अटूट निष्ठा जगा कर प्रताप ने वास्तव
में अलोकिक कम किया | वे सम्पूर्ण जन मानस के वास्तव में नेता थे | व्यक्ति
व्यक्ति में उन्होंने मात्रभूमि के प्रति भक्ति जगाई और अत्महुती के लिए तैयार
किया | यही कारण था की महाराणा इतने लम्बे समय तक संघर्ष करते हुए भी निराश नहीं
हुए और मेवाड़ को स्वतंत्र रख , प्रत्येक व्यक्ति में स्वाभिमान के साथ सिर ऊँचा कर
जीने का क्षमता का निर्माण कर सके | आज भी मेवाड़ के राज्य चिन्ह में में एक और राजपूत और एक और भील को खड़ा कर
महाराणा ने एकात्मकता को प्रकट किया था | मेवाड़ की परंपरा की विशेषता का यह प्रमाण
है |
मेवाड़ के जनमानस को संघठित करने के साथ साथ
प्रताप ने दूसरा कम यह किया की मेवाड़ के जो मित्र थे उनके साथ संबध सुद्रढ़ किये |
मेवाड़ के राठोड तो जयमल के साथ पहले से ही मेवाड़ में सारण ले चुके थे | जयमल की
मृत्यु के बाद भी उनके वंशजों ने महाराणा का ही साथ दिया | जोधपुर के महाराजा यधपि
उनके समधी थे फिर भी राजनैतिक दृष्टी से राठोड़ो के साथ सम्बन्ध स्थापित करना
महत्वपूर्ण ही था | इडर के महाराजा नारायणदास को भी प्रताप को अपने पक्ष में कर
लिया | उधर ग्वालियर के राजा रामसिंह तंवर से
भी मित्रता मित्रता के हाथ बढ़ाये | उस संपूर्ण कुल को प्रताप ने अपने पक्ष
में कर लिया | हल्दीघाटी के युद्ध में ग्वालियर राज्य परिवार ने केवल सहयोग ही
नहीं किया बल्कि प्राणों की आहुति भी दी | इस प्रकार प्रताप ने मित्रता के संबंधो
को व्यापक बनाकर मेवाड़ को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश के प्रमुख राज्यों को भी
शत्रु से लोहा लेने के लिए तैयार किया , यधपि यह कार्य उस परिस्थिति में सिमित रूप
में ही हो सका | कई व्यक्ति यह कह आरोप लगाते है की प्रताप को तो केवल अपने राज्य की चिंता थी | अगर प्रताप को अपने ही राज्य की चिंता होती तो या
अपने सुख की चिंता होती तो वे एक दो नहीं पुरे 29 वर्षो तक जंगलो की खाक क्यों छानते | क्यों सम्पूर्ण प्रदेश को
संकट में डालते ? हो सकता है की मेवाड़ के
संघर्ष में रहने के कारन मेवाड़ के आर्थिक विकास दुसरे राज्यों की तुलना में आर्थिक
विकास न हो सका किन्तु आज भी यदि हिन्दू संसार में सिर उठाकर चलते है तो और घोषणा
करते है की “देंगे प्राण न देंगे माट्टी “ तो वह केवल प्रताप के ही कारन है |
राज्य सुख उपभोग को लात मार कर स्वाभिमान की जिन्दगी बिताने वाले उस सिंह से भारत
ही नहीं सम्पूर्ण विश्व भी सदा सदा से प्रेरणा लेता रहेगा |
पर्वतीय प्रदेश को सुसंगठित करके राज्यों के साथ
सम्बन्ध स्थापित करने के पश्चात प्रताप ने एक और दूरदर्शिता की , कि मेवाड़ के
मैदानी प्रदेश में रहने वाले लोगो को पर्वतीय प्रदेश में बुलवा लिया | उन्होंने यह
घोषणा की की कोई भी उस प्रदेश में खेती न
करे | उस हरी भरी जमीन की इस प्रकार
उजाड़ने की घोषणा करने से और उसके पालन न करने पर उस व्यक्ति को कठोर दंड देने में
कुछ इतिहासकार प्रताप को राजपूताने के बगीचे को उजाड़ने वाला भी बताने लगे | उस समय
की परिस्थिति का अवलोकन करने से यह बात स्पष्ट दिखाई देती है | यदि प्रताप ऐसा नहीं करते तो मुगल सर पे आकर खड़े
हो जाते | ऐसा करके महाराणा ने दिल्ही या सूरत को जाने वाले मार्ग अवरुद्ध कर दिए
जिससे व्यापारिक दृष्टी से भी अकबर को क्षति हुई क्योकि लहलहाते खेत घास के
मैदान बन गए , गावो में कंटीली झाडिया हो
गयी सम्पूर्ण प्रदेश जंगलो से भर गया जिससे हिंसक पशु मैदानों में विचरण करने लगे
| कोई ऐसे बीहड़ मार्ग से व्यापारिक वस्तुओ को सुरक्षित नहीं ला जा सकते | इस मार्ग
के अवरुद्ध हो जाने के कारन ये मैदान भी एक प्रकार से सुरक्षा ही कर रहे थे , ऐसे समय
में जब शत्रु सर पे खड़ा हो | अपने क्षेत्र को हर दृष्टी से सुरक्षित करना क्या बुद्धिमानी
नहीं ? समझोता वार्ता असफल होने के तीन
वर्ष पश्चात तक इस प्रकार की सुरक्षा और किलेबंदी के कार्य दोनों और से होते रहे
दोनों पक्ष अपने अपने पक्ष को मजबूत करने लगे हुए थे | ऐसे समय में भीलो को अन्य
भिन्न राज्यों को तथा मेवाड़ की सम्पूर्ण जनता को अपने साथ लिया, यह वास्तव में महत्वपूर्ण ही है और प्रताप तथा मेवाड़ के चरित्र
को भी उच्चता के शिखर पर ले जाती है | “ कार्यवा साध्यं देहं व पात येयाम “ या तो
कार्य सिद्ध होगा या मृतु का ही वरण किया जायेगा राणा का यह भीषण
प्रण आज भी प्रेरणा दे रहा है और जब तक इस विश्व में एक भी मानव जिन्दा है उसको
स्वाभिमान की प्रेरणा देता रहेगा |
“ राणा के इस भीषण प्रण को आज पुनः
हम सब दोहराए “
“तज देंगे सारा सुख वैभव , जब तक माँ का कष्ट न
जाए “
क्या होगा माता के कारण, अगर
राष्ट्र के लिये मरेंगे ,
भूमि
शयन , घास की रोटी , खाकर भी व्यथा न
करेंगे “
निश्चित होगी विजय सत्य की, दुश्मन कांपे थर थर थर थर,
साधक आज
प्रतिज्ञा कर ले, जननी के इस संकट क्षण पर
|”
कवी के ये शब्द निश्चित रूप से प्रताप के उज्जवल
चरित्र को प्रदर्शित कर हमें इस्सी प्रकार का स्वाभिमानी जीवन व्यतीत करने को
प्रेरित करते है |
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