
युद्ध अपरिहार्य था | दोनो पक्ष इसी को सामने रखकर तयारी कर रहे थे | फतहपुर सीकरी में बैठे अकबर को चैन कहा था उसके सामने तो एक ही लक्ष्य था की किसी प्रकार प्रताप को परास्त किया जाय? फतहपुर सीकरी से वह सेना सहित अजमेर की और रवाना हुआ , वहा पहुचने के बाद मानसिंह के सेनापति होने की घोषणा की | अकबर जानता था की मानसिंह अपनी पूरी शक्ति के साथ युद्ध में झुकेंगा क्योकि मुग़ल दरबार में उसे अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखनी थी ! यह मानसिंह की स्वामिभक्ति की कठोर परीक्षा थी | अकबर यह भी जनता था की मेवाड़ का प्रदेश पहाड़ी प्रदेश है , यदि प्रताप उस प्रदेश से बहार निकल कर युद्ध नहीं करेगा तो बाध्य होकर मुगल सेना को ही आगे बढ़ना होगा | यही सोचकर ही एक राजपुत को सेनापति बनाया गया जो स्वभाव से ही पहाड़ी युद्ध के विशेषज्ञ होते है | अब तक तो आमेर के शत्रुओ के विरुद्ध युद्ध कर आमेर को द्श्योग किया था | इसी कारण भगवंतदास , भगवंतदास तथा मानसिंह तथा अन्य राजपुत सरदार आदि अपने मन में बड़ा कष्ट अनुभव कर रहे थे | अकबर को भी यह संदेह था की जब युद्ध का अवसर आवेगा तो हिन्दू सरदार अपनी स्वामिभक्ति निः संकोच नहीं दे पाएंगे | अकबर का अनुशासन इतना कठोर था की कोई यह पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता की मानसिंह को सेनापति क्यों नियुक्त किया है | इतना अवश्य था की मुशलमान सरदारों में इसका रोष अधिक था | मुश्लिम इतिहासकार बंदायूनी ने लिखा है की उसके सरंक्षक नासिर खां ने कहा था की “यदि सेना का नेतृत्व हिन्दू के हाथो में न होता तो युद्ध की बागडोर वह संभालता | 3 अप्रैल 1576 को मानसिंह सेना लेकर अजमेर से चला , पहला पड़ाव उसने मांडलगढ़ में रखा तथा दो महीने वही रहा | वह प्रताप को युद्ध न करने के लिए एक अन्य अवसर देना चाहता था |
मुग़ल सेना के मांडल गढ़ पहुचने के समाचार प्रताप
तक पहुचे | वे भी इसी प्रतीक्षा में थे | कुम्भलगढ़ से हटकर गोगुन्दा आये | एक बार
मन में यह विचार आया की मांडल गढ़ में ही
जाकर मुग़ल सेना को परास्त किया जाय किन्तु इस काम में खतरा अधिक था | एक तो मांडल
गढ़ अजमेर के समीप था किसी भी समय शाही सेना को अजमेर से सहयोग मिल सकता था | दुसरे
साधनों की सीमितता के कारण भी वहा युद्ध लड़ना प्रताप के हित में नहीं था | मांडल
गढ़ से मुग़ल सेना ने नाथद्वारा से लगभग १०
मील दूर खमनोर के मोलेला नमक गाँव में अपना पड़ाव डाला | इस समय महाराणा ने युद्ध के
लिए जो मार्चा बनाया था वह सामरिक दृष्टी से अधिक उपयुक्त था | उन्होंने गोगुन्दा
और खमनोर के बिच हल्दीघाटी नामक तंग घाटी (दर्रा) में अपना पड़ाव डाला | इस घाटी
में एक बार में एक ही व्यक्ति या घुड़सवार प्रवेश कर सकता था सैनिको की कमी के कारण
भी यह स्थान उपयुक्त था | और मोर्चाबंदी
के लिए तो सर्वोतम था | प्रताप कि सेना ऐसी स्थिति में थी की कुछ ही सैनिक सैकडो
सैनिको के आक्रमण को रोक सकते थे , जहा प्रताप के सैनिक आसानी से छिपकर आक्रमण कर
सकते थे वही मुग़ल सैनिक भटककर भूखो मरकर जीवन गवां सकते थे | प्रताप ने हल्दी घाटी
का मोर्चा काफी सोच समजकर चुना था | इस समय महाराणा प्रताप के साथ बड़ी सादडी के
मन्ना (मानसिंह ) झाला , जयमल मेहता , ग्वालियर के राजा रामसिंह तंवर और उनके पुत्र शालिवाहन ,
प्रतापसिंह भगवानसिंह , हाकिम खां सूरी , भीलो के सरदार राणापूंजा
, मेरपुर के राणा ,भामाशाह व उसका भाई ताराचंद आदि प्रमुख थे जिन्होंने
वीरता के साथ हल्दीघाटी के युद्ध को सफल बनाने का प्रयास किया | मानसिंह की सेना
के साथ वाराह के सैयद , गाजी खां बदरख्शी , राय लुनकरण, कछवाहा के जगनाथ , ख़वाजा
गयासुधिन अली , आसिफ खां और मिहतर खां आदि थे |
युद्ध आरम्भ हुआ घाटी और खमनोर के बिच उबड़ खाबड़
स्थान में , जो बनास नदी तक आगे चला गया
है | महाराणा की और से आक्रमण हुआ | मेवर के वीरो की मार इतनी भारी थी की मुग़ल
सेना के पैर उखड गए | साडी सेना तितर बितर हो गयी , टुकडीयों के नायक इधर – उधर
भागने लगे , मुग़ल सेना युद्ध स्थल से १० -१२ मील भागति गयी | कई इतिहासकार कहते है
की यदि मिहतर खां द्वारा यह आवाज न की गयी होती की अजमेर से स्वयं अकबर सहयोग के
लिए आ गया है तो सेना भाग गयी होती | अकबर के सहयोग की बात सुन कर सेना में कुछ
हिम्मत बंधी और फिर से युद्ध के लिए तत्पर होकर आगे बढे आक्रमण का दूसरा प्रहार था
| अब हाथियों का युद्ध प्रारंभ हो गया था | हाथियों की चिंघाड़ से सारा युद्ध स्थल
गुंजित हो उठा | राणा की और से “रामप्रसाद “ हाथी और मुगलों की और से
“गजयुक्ता” हाथी का युद्ध होने लगा |
मुगलों के पास भारी तोपखानो के कारण इस हाथी युद्ध में रामप्रसाद हाथी मुगलों के
हाथ लग गया | इस हाथी का महत्व था क्योकि
अकबर स्वं अस हाथी को प्रताप से मांग चूका था | परन्तु मेवाड़ ने मना कर दिया | मुग़ल सेना को इस हाथी
की प्राप्ति महत्वपूर्ण उपलब्धि थी | जब अकबर के सम्मुख हाथी को उपस्थित किया तो
अकबर ने यह कहा की पीर कृपा से ही हाथी मिला है अतः इसका नाम “ पीर प्रसाद “ रखा
जावे | हाकिम खां सूरी यधपि पठान था किन्तु स्वामिभक्ति में उस पर कोई अंगुली नहीं
उठा सकता था | अपने सैनिको के साथ वह बड़ी बहादुरी के साथ मुगलों की टुकड़ी पर टूट पड़ा | इधर ग्वालियर के राजा
रामसिंह उनके पुत्र शालिवाहन तथा प्रतापसिंह तथा उनकी सेना की टुकड़ी अत्यंत उग्र
रूप से लड़ रही थी | इतिहासकार अबुल फजल का तो यह कहना है की ग्वालियर के राजा तथा
उनके पुत्रो के आक्रमण के प्रहारों को मुग़ल सेना झेल भी नहीं पा रही थी | उनके
आक्रमण का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता
था | परुन्तु दुर्भाग्य से तीनो ही वीरगति को प्राप्त हुए | महाराणा स्वयं
भी सेना सहित उस मैदानी प्रदेश में लड़ रहे थे | वे राज्य चिन्ह धारण किये हुए थे |
सेनापति मानसिंह को ढूंढ रहे थे , दूर सेना से घिरे हुए मानसिंह पर दृष्टी पड़ी |
चेतक को ऐड लगाई | चेतक स्वामिभक्त घोडा
था और अत्यंत कुशल भी था | स्वामी की बात समझ कर उसने अपने कदम उस और बढ़ाये जिस और
हाथी था | महाराणा के हाथ में भाला था , कमर में कतार और तलवार थी | शत्रु दल को
चीरते हुए वे हाथी के पास जा पहुचे | भारी भरकम शरीर और उसके साथ उसके हाथ में भारी
भाला जिस पर पड़ता उसे संसार छोड़ना ही पड़ता था चेतक ने स्वामी इच्छा समझ अपने अगले दोनों पैर
मानसिंह के हाथी के सिर पर टिका दिए |
अब क्या था ? बस मोका पाकर प्रताप ने भले का भरपूर प्रहार किया , परुन्तु मानसिंह होदे में छिप गया | पीछे बैठा अंगरक्षक मारा गया और छतरी का एक खम्भा टूट गया | प्रताप ने मानसिंह पर कटार फेक कर प्रहार किया | इस प्रहार को सफल समझ कर प्रताप ने चेतक को उतरने का इशारा किया | स्वामी का इशारा पाकर चेतक ने अगले दोनों पैर पुनः धरती पर टिका दिए | इसी समय हाथी की सुन्ड में जो तलवार थी उससे चेतक की पिछली एक टांग पर प्रहार होने से उसकी टांग कट गयी , भारी घाव लगा किन्तु स्वामी को आभास तक नहीं होने दिया की वह घायल है | झाला मन्ना यह दृश्य दूर से देख रहे थे | महाराणा काफी कष्ट में थे | चेतक को चलने में भी कठिनाई होने लगी | मन्ना झाला सेना को चीरते हुए महाराणा के पास आये | आत्मनिवेदन किया और कहा की “आप इस समय रण क्षेत्र से चले जाए , इसी में ही मेवाड़ के शुभ लक्षण है | राज्य चिन्ह मुझे उतार कर दे दीजिये , जल्दी करिए | आज देश को आप और आपके नेतृत्व की आवश्यकता है | में मर भी जाऊंगा तो सैकड़ो मन्ना झाला और पैदा हो जायेंगे | किन्तु मेवाड़ को आपके नेतृत्व की आवश्यकता है | कृपया शिघ्र करे “ परिस्थिति को देख कर राणा ने वैसा ही किया राज्य चिन्ह उतार कर दे दिया | स्वं रण क्षेत्र से बहार आ गए | राज्य चिन्ह के बदलते ही सैंकड़ो तलवारे मन्ना झाला पर टूट पड़ी | मन्ना झाला असाधारण वीर थे , इस प्रहारों का भरपूर सामना किया | भयंकर युद्ध हुआ | दोनों और की सेनाये पुरे दमखम के साथ लड़ी | राजपूतो और भीलो के लिए मेवाड़ स्वाभिमान व आन बान का प्रश्न था , उसी प्रतिष्ठा के लिए युद्ध लड़ा जा रहा था | मुग़ल पक्ष को मिटाने के लिए पूरा जोर लगाया जा रहा था एक और मात्रभूमि पर मर मिटने और अपने प्राणों को मिटाने की होड़ थी तो दूसरी और अकबर के दरबार में पदोन्नति के लिए युद्ध लड़ा जा रहा था |
यही कारण था की मन्ना झाला और उसके जैसे कई व्यक्ति अपने प्राणों के उत्सर्ग में अपने को धन्य मान रहे थे | मन्ना झाला के प्राणोत्सर्ग जैसे उदाहरण के समक्ष्य किस भारतीय का मस्तक श्रधा से नहीं झुकेगा ? अभी ये जिस मनस्वी ने अपने प्राण देश के लिए मात्रभूमि के लिए त्यागे, उसे मेवाड़ का ही नहीं बल्कि आने वाले हर युग में त्याग और बलिदान के लिए याद रखेगा | ये भारत भूमि इसके बलिदान के लिए हमेशा ऋणी रहेगी | में अपनी और से और भारत के हर नागरिक की और से उस क्षत्राणी का आभारी रहूँगा जिसने ऐसे वीर को जन्म दिया | उधर महाराणा घाटी में प्रवेश कर चुके थे | चेतक को दोड़ने में कठिनाई हो रही थी | कहते है जब महाराणा घाटी में जा रहे थे तब दो मुगलों ने देख लिया था | उन्होंने महाराणा का पीछा किया युद्ध में महाराणा का छोटा भाई शक्तिसिंह भी अकबर की सेना में आया था , संकट में पडे महाराणा को देखकर उसका भाई प्रेम जाग उठा | उसने मुगलों का पीछा किया, घाटी उतरने के बाद बाद एक छोटा सा नाला था | चेतक तो अभ्यस्त होने के कारण नाले को आसानी से पर गया पर मुगल पर न कर सके | तभी शक्तिसिंह आ गए | वह उन सैनिको का कम तमाम कर नाला पर कर आगे बढे | चेतक परलोक सिधार कर चूका था | चेतक महाराणा का अत्यंत प्यारा घोडा था | जो महाराणा कभी किसी भी परिस्थिति में रोये नहीं आज चेतक की मृत्यु पर आसु बहा रहे थे |
उसी समय शक्ति सिंह ने पुकारा “ओ नीला घोडा रा असवार” | राणा ने शब्द सुने | सिर उठा कर देखा तो भाई शक्तिसिंह को खड़ा पाया | शक्तिसिंह अपनी करनी पर लज्जित थे | उसने अपने बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना की | राणा तो प्रेम के अथाह सागर थे उन्होंने उसे गले लगाया और क्षमा कर दिया | हल्दी घाटी का युद्ध समाप्त हुआ मुग़ल सेना में दुन्दुभिया बज रही थी, विजय (केवल मुगलों ने माना ) के नगाड़े बज रहे थे | किन्तु कोई भी सैनिक आगे बढ़ने को तैयार नहीं था | उन्होंने प्रताप के शोर्य की गाथाये सुन रखी थी , आज प्रताप के इस शोर्य को आँखों से देखा था | सभी मुग़ल इतने भयभीत थे के युद्ध के उपरांत अपने शिविर के चारो और ऊँची ऊँची मिटटी की दिवार कड़ी करवा दी ताकि कही राजपूतो के घोड़े लाँघ कर न आ जाये | इतनी सुरक्षा करने के बाद भी मुग़ल सैनिको को रात भर नींद नहीं आयी | मुसलमान इतिहासकार बंदायूनी तथा अबुल फ़जल चाहे युद्ध की घोषणा करते रहे हो परन्तु वास्तव में सैनिको के मन की स्थिति ऐसी थी की हार को प्रदर्शित कर रही थी | परन्तु यह युद्ध अनिर्णय रहा | इसमें न किसी पक्ष की हार न किसी पक्ष की जीत हुई थी कारण स्पष्ट है |
अब क्या था ? बस मोका पाकर प्रताप ने भले का भरपूर प्रहार किया , परुन्तु मानसिंह होदे में छिप गया | पीछे बैठा अंगरक्षक मारा गया और छतरी का एक खम्भा टूट गया | प्रताप ने मानसिंह पर कटार फेक कर प्रहार किया | इस प्रहार को सफल समझ कर प्रताप ने चेतक को उतरने का इशारा किया | स्वामी का इशारा पाकर चेतक ने अगले दोनों पैर पुनः धरती पर टिका दिए | इसी समय हाथी की सुन्ड में जो तलवार थी उससे चेतक की पिछली एक टांग पर प्रहार होने से उसकी टांग कट गयी , भारी घाव लगा किन्तु स्वामी को आभास तक नहीं होने दिया की वह घायल है | झाला मन्ना यह दृश्य दूर से देख रहे थे | महाराणा काफी कष्ट में थे | चेतक को चलने में भी कठिनाई होने लगी | मन्ना झाला सेना को चीरते हुए महाराणा के पास आये | आत्मनिवेदन किया और कहा की “आप इस समय रण क्षेत्र से चले जाए , इसी में ही मेवाड़ के शुभ लक्षण है | राज्य चिन्ह मुझे उतार कर दे दीजिये , जल्दी करिए | आज देश को आप और आपके नेतृत्व की आवश्यकता है | में मर भी जाऊंगा तो सैकड़ो मन्ना झाला और पैदा हो जायेंगे | किन्तु मेवाड़ को आपके नेतृत्व की आवश्यकता है | कृपया शिघ्र करे “ परिस्थिति को देख कर राणा ने वैसा ही किया राज्य चिन्ह उतार कर दे दिया | स्वं रण क्षेत्र से बहार आ गए | राज्य चिन्ह के बदलते ही सैंकड़ो तलवारे मन्ना झाला पर टूट पड़ी | मन्ना झाला असाधारण वीर थे , इस प्रहारों का भरपूर सामना किया | भयंकर युद्ध हुआ | दोनों और की सेनाये पुरे दमखम के साथ लड़ी | राजपूतो और भीलो के लिए मेवाड़ स्वाभिमान व आन बान का प्रश्न था , उसी प्रतिष्ठा के लिए युद्ध लड़ा जा रहा था | मुग़ल पक्ष को मिटाने के लिए पूरा जोर लगाया जा रहा था एक और मात्रभूमि पर मर मिटने और अपने प्राणों को मिटाने की होड़ थी तो दूसरी और अकबर के दरबार में पदोन्नति के लिए युद्ध लड़ा जा रहा था |
यही कारण था की मन्ना झाला और उसके जैसे कई व्यक्ति अपने प्राणों के उत्सर्ग में अपने को धन्य मान रहे थे | मन्ना झाला के प्राणोत्सर्ग जैसे उदाहरण के समक्ष्य किस भारतीय का मस्तक श्रधा से नहीं झुकेगा ? अभी ये जिस मनस्वी ने अपने प्राण देश के लिए मात्रभूमि के लिए त्यागे, उसे मेवाड़ का ही नहीं बल्कि आने वाले हर युग में त्याग और बलिदान के लिए याद रखेगा | ये भारत भूमि इसके बलिदान के लिए हमेशा ऋणी रहेगी | में अपनी और से और भारत के हर नागरिक की और से उस क्षत्राणी का आभारी रहूँगा जिसने ऐसे वीर को जन्म दिया | उधर महाराणा घाटी में प्रवेश कर चुके थे | चेतक को दोड़ने में कठिनाई हो रही थी | कहते है जब महाराणा घाटी में जा रहे थे तब दो मुगलों ने देख लिया था | उन्होंने महाराणा का पीछा किया युद्ध में महाराणा का छोटा भाई शक्तिसिंह भी अकबर की सेना में आया था , संकट में पडे महाराणा को देखकर उसका भाई प्रेम जाग उठा | उसने मुगलों का पीछा किया, घाटी उतरने के बाद बाद एक छोटा सा नाला था | चेतक तो अभ्यस्त होने के कारण नाले को आसानी से पर गया पर मुगल पर न कर सके | तभी शक्तिसिंह आ गए | वह उन सैनिको का कम तमाम कर नाला पर कर आगे बढे | चेतक परलोक सिधार कर चूका था | चेतक महाराणा का अत्यंत प्यारा घोडा था | जो महाराणा कभी किसी भी परिस्थिति में रोये नहीं आज चेतक की मृत्यु पर आसु बहा रहे थे |
उसी समय शक्ति सिंह ने पुकारा “ओ नीला घोडा रा असवार” | राणा ने शब्द सुने | सिर उठा कर देखा तो भाई शक्तिसिंह को खड़ा पाया | शक्तिसिंह अपनी करनी पर लज्जित थे | उसने अपने बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना की | राणा तो प्रेम के अथाह सागर थे उन्होंने उसे गले लगाया और क्षमा कर दिया | हल्दी घाटी का युद्ध समाप्त हुआ मुग़ल सेना में दुन्दुभिया बज रही थी, विजय (केवल मुगलों ने माना ) के नगाड़े बज रहे थे | किन्तु कोई भी सैनिक आगे बढ़ने को तैयार नहीं था | उन्होंने प्रताप के शोर्य की गाथाये सुन रखी थी , आज प्रताप के इस शोर्य को आँखों से देखा था | सभी मुग़ल इतने भयभीत थे के युद्ध के उपरांत अपने शिविर के चारो और ऊँची ऊँची मिटटी की दिवार कड़ी करवा दी ताकि कही राजपूतो के घोड़े लाँघ कर न आ जाये | इतनी सुरक्षा करने के बाद भी मुग़ल सैनिको को रात भर नींद नहीं आयी | मुसलमान इतिहासकार बंदायूनी तथा अबुल फ़जल चाहे युद्ध की घोषणा करते रहे हो परन्तु वास्तव में सैनिको के मन की स्थिति ऐसी थी की हार को प्रदर्शित कर रही थी | परन्तु यह युद्ध अनिर्णय रहा | इसमें न किसी पक्ष की हार न किसी पक्ष की जीत हुई थी कारण स्पष्ट है |
1. जितने वाला राजा , हारने वाले राजा को पकड़कर युद्ध बंधी बना लेता
है लेकिन यहा मानसिंह ने महाराणा को नहीं पकड़ा
था
2. जितने वाला राजा, हारने वाले राजा को मौत के घाट उतार देता है और उसके राज्य पर अधिकार कर लेता लेकिन यहाँ अकबर के सेनापति मानसिंह ने महाराणा को मौत के घाट नहीं उतारा या यु कहू उतार सका |3. महाराणा की सेना के किसी भी सेनापति या सरदार ने महाराणा की और से मानसिंह के सामने हार स्वीकार नहीं की |4. मानसिंह, महाराणा के पुरे मेवाड़ पर कब्ज़ा नहीं कर सका और मुगलों और राजपूतो में झडपे होती रही |5. महाराणा की सेना हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी मुगलों से छापामार युद्ध करती रही |
अतः यहाँ अकबर के दरबारी और पिछलगु इतिहासकार
केवल अकबर को खुश करने के लिए और मोटा इनाम पाने के लिए ये लिख दिया की हल्दीघाटी
में महाराणा की हार हुई | दरअसल हार तो
मुगलों और मानसिंह की हुई जो इतनी दूर से विजय पाने के लिए इतनी बड़ी सेना लेकर आया
लेकिन मिला क्या “ढ़ाक के तिन पात” यानि कुछ नहीं मिला उलटे उसके राजकोष पे आर्थिक हानि
और कई सैनिक मौत के घाट उतार दिए | उसकी सेना बुरी तरह से टूट चुकी थी उनका साहस
खो चूका था | जब मानसिंह वापस आगरा आया तो अकबर उससे मिला भी नहीं | अकबर मानसिंह
से कई दिनों तक नहीं मिला और फिर आखिर में उसे बंगाल में विद्रोह कुचलने के लिए
भेज दिया | हल्दीघाटी में एक संग्राम तो समाप्त हुआ लेकिन संघर्ष समाप्त नहीं हुआ
शाही सेना परेशान हो हाथ मल रही थी उनका
कार्य सिद्ध नहीं हुआ प्रताप युद्ध की स्थिति समझ साधनों और सेना के अभाव में पीछे
हट गए थे, अब वे इस ताक में थे की किस प्रकार शाही सेना को घेर कर मारा जाए
हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के शोर्य की गाथाएँ भारत के कोने कोने में पहुच चुकी
थी विशेषकर मुग़ल सैनिको में , बंगाल दिल्ली और दक्षिणी भारत में जब भी कभी मुग़ल
सैनिक मिलकर बात करते उस समय हल्दीघाटी के युद्ध की चर्चा ही करते | सभी प्रताप को
धन्य मानते थे | विरोधी होने पर भी प्रताप के प्रति श्रधा उमड़ जाती | शोर्य और
गाथाये इस बात का संकेत है की इस युद्ध के बारे में चाहे हम घोषणा न भी करे की
विजय किसकी हुई तो भी इतना स्पष्ट रूप से
कह सकते है की युद्ध में प्रबलता महाराणा प्रताप
के पक्ष की ही हुई |
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